Torbaaz Review: भूमि (2017) से कमबैक के बाद शुरू हुआ संजय दत्त का सफर अभी तक दर्शकों के दिलों में नया तूफान पैदा करने में नाकाम रहा है. बीते अगस्त में उनकी सड़क-2 ने बेहद निराश किया था और तोरबाज भी नेक इरादों के बावजूद छाप छोड़ने में सफल नहीं होती. नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म अपनी बनावट-बुनावट में कमजोर है. इसलिए सवा दो घंटे में न तो इसकी कहानी और न ही किरदार पैर जमा पाते हैं.
फिल्म खुले मैदान की तेज हवाओं में पतली डंडी पर लगी झंडी-सी फरफराती रहती है. लगता है कि अब उड़ी, तब उड़ी. निर्देशक गिरीश मलिक ने संजय दत्त को हीरो बनाने के इरादे के बजाय कहानी और किरदारों को गढ़ने पर पूरा ध्यान लगाया होता तो संभवतः नतीजा कुछ और होता. एक लिहाज से इसे अफगानी लगान कह सकते हैं. लेकिन यह आशुतोष गोवारिकर की लगान के आगे कहीं नहीं ठहरती.
फिल्म में संजय दत्त अफगानी रिफ्यूजी कैंपों में रहे वाले अनाथ-बेसहारा-गरीब और तालिबानी होने के संदेह में घिरे बच्चों की क्रिकेट टीम बनाते हैं. टीम का मुकाबला होता है काबुल के एक क्रिकेट क्लब की अंडर-16 टीम से. इस सवाल का जवाब आप फिल्म देखे बिना भी जानते हैं कि कौन-सी टीम मैच जीतेगी. तोरबाज की शुरुआत धीमी मगर ठीकठाक होती है.
कभी सेना में डॉक्टर रहे नासिर खान (संजय) दिल्ली हवाई अड्डे से काबुल की उड़ान भरते हैं. पता चलता है कि नासिर की कभी काबुल में पोस्टिंग हुई थी और यहीं फिदायीन आतंकी हमले में उनकी पत्नी और नन्हा बेटा मारा गया था. नासिर की पत्नी ने मरने से पहले तालिबानी हमलों में अनाथ होने वाले बच्चों के लिए एनजीओ शुरू किया था, टुमॉरोज होप.
इसी के कार्यक्रम में डॉ.नासिर आते हैं और फिर रिफ्यूजी बच्चों को क्रिकेट खेलते देख तय करते हैं कि इनकी मजबूत टीम बनाएं. हो सकता है कि कभी इनमें से कोई बच्चा अफगानिस्तान की राष्ट्रीय टीम में खेले. बस, इसके बाद फिल्म पर लेखक-निर्देशक का नियंत्रण नहीं रह जाता.
संजय दत्त न तो डॉक्टर नजर आते हैं और न क्रिकेट कोच. बढ़ती उम्र उन्हें स्क्रीन पर धोखा देती रहती है. उनके चेहरे पर जरूर भावों की लहरें चंचल होती हैं परंतु न तो उन्हें ढंग की कहानी मिल पा रही है और न अच्छा निर्देशक. समस्या यह है कि उनके साथ काम करने वाले बार-बार उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि वह पर्दे पर पुराने संजू बाबा को लौटा लाएंगे. उन्हें कोई नहीं समझाता कि सितारे सदा के लिए नहीं होते. संजू के साथ काम करने वाले कथा-पटकथा में उनके हिसाब से सर्जरी कर देते हैं, जिसके नतीजे भूमि (2017) से तोरबाज तक सामने हैं.
इस फिल्म में संजय दत्त के अलावा कुछ मौजूद दिखता है तो अफगानिस्तान के उजाड़ और दूर-दराज बिखरी खूबसूरत पहाड़ियां. नर्गिस फाखरी होकर भी नहीं हैं और बच्चों को फिदायीन बनाने वाले तालिबानी लीडर बने राहुल देव नाम मात्र को ही हैं. फिल्म उस तालिबानी सोच के खिलाफ जरूर खड़ी है जो मासूमों को आत्मघाती हमलावर बनाती है परंतु इसे सतही ढंग से दिखाया गया है.
संभावनाओं से भरी इस कहानी में भावनात्मक ज्वार गायब है. कहीं-कहीं जरूर यह अच्छे से उभरा है कि कुछ अफगानी बुरे दौर से गुजरने के बावजूद जात-पात, ऊंच-नीच और आपसी दुश्मनी से ऊपर उठ कर नहीं सोच रहे. नई पीढ़ी को भी अफगान होने से पहले पठान, पश्तून, हजारा, मुजाहिद और तालिबान होना सिखाया जा रहा है.
संजय दत्त का किरदार इन लोगों को समझाता है कि बच्चों को सपने देखने दें. पंख फैला कर उड़ने दें. संजू बच्चों को सीख देते हैं कि ख्वाब हमारे हैं तो हमें ही कोशिश करनी पड़ेगी. हालांकि यहां ‘इरादे जिनके पुख्ता हों, नजर जिनकी अपने मकसद पर हो, वो रास्ता कभी भूलते नहीं’ जैसे संवाद भी हैं, लेकिन ये तालिबानी लीडर की ओर से आते हैं.
तोरबाज कहती है कि तालिबान को भले ही संगीत-सिनेमा नापसंद हो परंतु क्रिकेट से परहेज नहीं है. वे भी अपने देश की टीम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलते और जीतते देखना चाहते हैं. ऐसे में क्या क्रिकेट आए दिन बम धमाकों से दहलती, अफगानिस्तान नाम की इस खुदा की बस्ती में अमन की रोशनी ला सकता है. तोरबाज की कहानी यह उम्मीद जगती है लेकिन क्लाइमेक्स में उसे खत्म भी कर देती है. अगर आप संजय दत्त के फैन हैं और उन्हें हर रंग-रूप में देखना पसंद करते हैं या फिर बॉलीवुड सिनेमा को लेकर जरूरत से ज्यादा आशावादी हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं.