नेशनल अवार्ड जीतने वाली पान सिंह तोमर (2012) तथा साहेब बीवी और गैंगस्टर सीरीज की पहली दो कड़ियों (2011-2013) को छोड़ दें तो निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फिल्में कभी सफल नहीं रहीं. उनके खाते में दर्शकों द्वारा ठुकराई फिल्मों की लंबी लिस्ट है. इन्हीं नाकाम फिल्मों में आप अब यारा (Yaara) को भी शामिल कर लें. 2011 में आई निर्देशक ओलीवर मार्सेल की फ्रेंच फिल्म लास लुयुने (अ गैंग स्टोरी) में चार गैंगस्टर दोस्तों की कहानी है. धूलिया ने इसका हिंदीकरण किया है.


यह फिल्म जी5 पर रिलीज हुई है. मूल फिल्म का तो पता नहीं परंतु यारा में तिग्मांशु दोस्ती का रंग नहीं जमा पाते. यह एक फार्मूला कहानी बन जाती है. जिनका कोई अर्थ अमूमन न सिनेमा के लिए होता है और न दर्शकों के लिए. यहां न एंटरटेनमेंट है, न मैसेज. देखते-देखते बीच में ही फिल्म छोड़ देने का मन करता है.


यारा (Yaara) में चार बच्चे अपराध की दुनिया में लुका-छुपी करते जवानी की दहलीज पर कदम रखते हैं. यह चौकड़ी मिलकर अपराध करती है और हर जगह सफल होती है. मसाला कहानी में फिर तिग्मांशु नक्सलवाद का तड़का लगाते हैं और कुछ पॉलिटिक्स करने की कोशिश करते हैं. मगर इससे बात नहीं बनती. तस्करी, कच्ची शराब और हथियारों की सप्लाई करने वाले चारों पेशेवर अपराधी (विद्युत जामवाल, अमित साध, विजय वर्मा, केनी) एक घटना में पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं. पुलिस उन्हें खूब टॉर्चर करती है. अदालत में उन्हें अलग-अलग सजा होती है. अलग-अलग जेलों में रखा जाता है.



अंततः वे सभी चार से सात साल तक अपनी-अपनी सजाएं काट कर बाहर निकलते हैं. तीन (विद्युत जामवाल, विजय वर्मा, केनी) तो बिजनेसमैन बन जाते हैं और एक (अमित साध) अपराध की दुनिया में ही रह जाता है. वह बीसेक बरस बाद पुराने दोस्तों की जिंदगी में लौटा है क्योंकि एक गैंगस्टर उसकी जान लेना चाहता है. फिर एक सीबीआई अफसर भी इन लोगों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करके अपना रिटायरमेंट सुधारना चाहता है.


यह कहानी और इसका ट्रीटमेंट ठंडा और सीलन भरा है. कहीं कसावट नहीं है. उल्लेखनीय है कि फिल्म बीते कुछ वर्षों से बनी रखी थी और इसे सिनेमाघर नहीं मिल पा रहे थे. 1950 से 1990 के चार दशक तेज रफ्तार में दिखाते हुए, तिग्मांशु के हाथों से कहानी के कई सीरे ढीले छूट गए हैं. इसकी कुछ जिम्मेदारी एडिटिंग की भी है. एक सीन में रोमानिया में अपने दुश्मन को ठिकाने लगाने वाला परम (विद्युत) पलक झपकते वहां से निकल कर दिल्ली के लोधी गार्डन की बैंच पर बैठा सीबीआई अफसर से बातें कर रहा है. यारा में न तो मूल कहानी किसी ठिकाने से बंधी है और न उसमें जुड़ी छोटी-छोटी कहानियां. फिल्म शुरू से छितराई हुई है. तिग्मांशु ने निर्देशन के साथ कहानी भी लिखी है और वह इस काम में बुरी तरह नाकाम रहे. विद्युत के किरदार को छोड़ अन्य कोई किरदार ढंग से निखर नहीं पाता.



फिल्म की शुरुआत विद्युत की आवाज से होती है, ‘हम चार थे. एक-दूसरे के पहरेदार थे. वक्त हमसे नाराज था. पर इस बार वह हमसे नाराज नहीं है. उसे हमसे नफरत है.’ वक्त की यह नफरत कहानी में नहीं दिखती. अमित साध और विजय वर्मा जैसे ऐक्टर भी अपने रोल में प्रभाव नहीं छोड़ पाते. उनकी कहानियां यारा की कहानी में निखर नहीं पातीं. बड़े बाप की बेटी होकर नक्सलियों के साथ काम करने वाली श्रुति हासन का रोल परम की पत्नी के रूप में असर खो देता है. तिग्मांशु कलाकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए. फिल्म के गीत-संगीत में कोई खास बात नहीं है.


यारा में ऐसा कुछ नहीं है, जिसके लिए इस पर दो घंटे 10 मिनट खर्च किए जाएं. विद्युत जरूर कमांडो सीरीज की फिल्मों के बाहर इसमें उपस्थिति दर्ज कराने में कुछ कामयाब हैं. विद्युत अच्छे ऐक्टर हैं परंतु वह खुद को ऐक्शन फिल्मों से बाहर कम ही आजमाना चाहते हैं. यारा की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है. कुछ दृश्य सुंदर बने हैं. मगर सिर्फ यह फिल्म देखने की वजह नहीं बन सकते. हमारे देश की मिट्टी में तमाम कहानियां बिखरी हैं.


दर्जनों संवेदनशील विषय हैं, जिन्हें कहे जाने की जरूरत है. फ्रेंच जड़ों वाली यारा की कहानी न पूरी तरह विदेशी रह पाती है और न ही देसी बन पाती है. बीते कुछ वर्षों में बुलैट राजा, राग देश, साहेब बीवी और गैंगस्टर-3 और मिलन टॉकीज जैसी फ्लॉप फिल्में देने वाले तिग्मांशु को कहानियों के चयन के बारे में गंभीर होकर सोचना चाहिए. बड़े सितारे उनके पास हैं नहीं और डिजिटल पर कंटेंट ही किंग है.