Pagglait: मरने वाले की मृत्यु के मायने तमाम लोगों के लिए अलग-अलग होते हैं. पगलैट मृत्यु के बहाने परिवार और रिश्तों की पड़ताल करती है. यह मृत्यु के बहाने जीवन की तलाश है. निर्देशक ने कहानी में कॉमिक और गंभीर अंदाज का संतुलन बनाए रखा है. बदलते पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों के बीच पगलैट आईना दिखाने का काम करती है.


अगर हम अपनी जिंदगी के फैसले नहीं लेंगे तो दूसरे ले लेंगे. जीवन में कुछ कर गुजरना चाहते हैं तो यह बात समझनी जरूरी है. जिंदगी में कई अहम मोड़ आते हैं, जब फैसले निर्णायक होते हैं. आपके लिए वो अहम फैसले कौन करता है. आप या कोई और. नेटफ्लिक्स ओरीजनल पगलैट संध्या गिरी (सान्या मल्होत्रा) के जीवन के निर्णायक मोड़ की कहानी है. आस्तिक नाम के जिस लखनवी शख्स से उसकी शादी हुई, वह पांच महीने में दुनिया से कूच कर गया. उसने कभी संध्या को प्यार नहीं किया. इसलिए संध्या को लगा ही नहीं कि उसने जीवन में कुछ खो दिया है. जब सब शोकमग्न हैं तो संध्या को पेप्सी की प्यास और चिप्स की भूख लगती है. रिश्तेदारों से भरे-पूरे कुटुंब में हर कोई उसके बारे में फैसले लेना चाहता है. ये फैसले तब और अहम हो जाते हैं, जब पता चलता है कि पति ने पचास लाख की लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी ली थी और उसकी एकमात्र नॉमिनी संध्या है.


पगलैट इंसान की मौत के बाद रिश्तेदारों-नातेदारों के हिसाबी-किताबी व्यवहार की पोथी खोलती है. किसी व्यक्ति की मौत के हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग मायने होते हैं. जिसमें प्यार-मोहब्बत से लेकर पैसों के लेन-देन तक के तार जुड़े रहते हैं. पगलैट खूबसूरती से इन तारों का ताना-बाना दिखाती है. मां-पिता, भाई-दोस्त, ताऊ, चाचा, बुआ, चाची सभी के चेहरे इसमें अलग-अलग नजर आते हैं. दुख में भी सुख और नुकसान में भरपाई की तलाश यहां चलती है. लड़की के जो माता-पिता उसे घर ले जाने के विचार से हिचकिचाते हैं कि वहां अभी दो और बेटियां बिनब्याही बैठी हैं, वही पचास लाख के इंश्योरेंस के बाद उसे कहते हैं कि अब ससुराल में क्या करेगी. जबकि जो ससुराल वाले इतने ओपन माइंडेड हैं कि बहू के लिए तलाकशुदा और विधवाओं की वेबसाइट पर उसके लिए वर ढूंढना चाहते हैं, वह तय करते हैं कि संध्या की शादी कुटुंब के ही किसी युवा से हो जाए तो घर का पैसा घर में रहेगा.



रिश्तों की यही हकीकत है. जिसे लेखक-निर्देशक उमेश बिष्ट ने बारीक, मार्मिक और कॉमिक अंदाज में पगलैट में उतारा है. यह पारिवारिक फिल्म भरे-पूरे परिवार के साथ देखे जाने योग्य है. उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि में आस्तिक की मौत के दिन से तेरहवीं तक सारे चेहरों पर पड़े नकाब उतर जाते हैं. फिल्म बताती है कि कुछ भी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं, सिवा खुद के. मजे की बात यह है कि जहां रिश्तेदारों में कोई संध्या का करीबी नहीं है, वही उसकी दोस्त नाजिया (श्रुति शर्मा) उसके सुख-दुख की साथी है. व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया से गढ़े जा रहे नए समाज में दोस्ती लगातार रिश्तों से बीस देखी-बताई जा रही है.



उमेश बिष्ट की यह फिल्म देखकर विश्वास करना कठिन होगा कि इससे पहले उन्होंने फिल्म ओ तेरी (2014) निर्देशित की और हीरो (2015) लिखी थी. पगलैट मास्टर स्ट्रोक जैसी फिल्म है. जिसमें मंजे कलाकारों की फौज जबर्दस्त है. सान्या मल्होत्रा शानदार अभिनेत्री के रूप में उभर कर आई हैं. फोटोग्राफ (2019) के बाद फिर उन्होंने संवेदनशील और यादगार भूमिका को शिद्दत से निभाया है. उनका अपने हाव-भाव पर नियंत्रण है. ऐसी फिल्में उनकी लंबी पारी की भविष्यवाणी करती हैं. उमेश बिष्ट ने कलाकारों का सटीक चयन किया. इसीलिए आशुतोष राणा, रघुवीर यादव, राजेश तैलंग, शीबा चड्ढा, श्रुति यादव से लेकर चेतन शर्मा तक अपनी भूमिकाओं में सधे दिखे. सयोनी गुप्ता का किरदार और ट्रेक बाकी किरदारों से अलग है और वह इसमें जमी हैं. फिल्म में आस्तिक कहीं नजर नहीं आता लेकिन आप संध्या की नजरों से उसे हर समय ढूंढते हैं. वह दृश्य मार्मिक बन जाता है, जब संध्या उसे माफ कर देती है.



पगलैट पर उमेश बिष्ट की पूरी पकड़ है. फिल्म की स्क्रिप्ट मक्खन जैसी है, जिस पर कहानी सरपट दौड़ती है. संवाद गहरे अर्थ लिए हुए हैं. जैसे- हर कोई सचिन ‘तेंदुलकर’ नहीं होता और जो चीज खुद के पास नहीं होती, दूसरे के पास भी अच्छी नहीं लगती. बिष्ट की फिल्म में एकमात्र मुस्लिम किरदार नाजिया आम धारणाओं को तोड़ती है. वह मांसाहारी नहीं है और हवन में आहुति भी डालती है. वह संध्या के हिंदू परिवार में आराम से रहती है और इस बात का बुरा नहीं मानती कि उसे बाहर भेज कर भोजन कराया जाता है, चाय के लिए उसका कप सबसे अलग है. फिल्म में उमेश कई स्तरों पर बात करते हैं और तमाम मामलों को कभी हल्के-फुल्के-कॉमिक अंदाज में तो कभी गंभीरता से कह जाते हैं. यह समय ऐसी ही फिल्मों का है और इससे ही हमारा सिनेमा आगे बढ़ेगा.