राज कपूर का वही 27 साल के नौजवान वाला चेहरा आंखों के सामने आता है जब आवारा हूं.... बंजारा हूं.., गाने की 72 साल पुरानी धुन सुनाई देती हैं. राज कपूर की फिल्म 'आवारा' 1951 में आई थी यानी आजादी के सिर्फ चार साल ही बीते थे. फिल्म का गाना आवारा हूं.... बंजारा हूं.., या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं', में राजकपूर की चाल, उनके चेहरे पर बिखरी बेबाक मुस्कान ने सात समंदर पार बैठे लोगों को उनका दिवाना बना दिया था. चाहे वह श्री 420 (1955) हो या 1960 में आई 'जिस देश में गंगा बहती है', इन फिल्मों के अलावा राज कपूर ने ऐसी कई फिल्मों का निर्देशन और अभियन किया जो आज भी हिंदी सिनेमा की बानगी पेश करता है. 


वैसे तो निमाई घोष की 'चिन्नामुल'  सोवियत संघ में रिलीज होने वाली पहली भारतीय फिल्म थी, लेकिन कपूर की चैप्लिन की भूमिकाओं ने दर्शकों का दिल जीत लिया. फिल्म आवारा सोवियत संघ में भी रिलीज हुई और फिल्म का गाना 'आवारा हूं' हर सोवियत की ज़ुबान पर था. ये वो दौर था जब हिंदी सिनेमा के 'शोमैन', फिल्म निर्माता, निर्देशक, सोवियत संघ में भी हीरो बन गए.  


उनके निर्देशन में बनी फिल्मों में से दो हिंदी फिल्में आज भी हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर बनी हुई हैं. 1970 में आई 'मेरा नाम जोकर' में कपूर की कथा शैली और 1973 में आई बॉबी जैसी कहानियों का प्रयोग आज भी हिंदी सिनेमा में होता है. 




सोवियत संघ में राज कपूर की दिवानगी


सोवियत संघ (अब रूस) में राज कपूर 1951 में ही हीरो बन गए थे. देश के पहले प्रधानमंत्री जब अपनी पहली सोवियत यात्रा पर गए थे तो भीड़ उन्हें देख कर चिल्लाया करती थी, 'आवारा हूँ.' 1996 में जब राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर और बेटी ऋतु नंदा चीन गए तो चीन के लोगों ने दोनों को देखकर 'आवारा हूँ' गाने लगे. हालांकि चीन के लोगों को तब तक ये नहीं पता था कि ये दोनों राज कपूर के बच्चे थे. विदेश में लोग ये गाना गा कर राज कपूर और भारत का सम्मान कर रहे थे. 




राज कपूर केवल सिनेमा की दुनिया में एक आइकन थे, बल्कि पूंजीवाद के कट्टर आलोचक भी थे. अपने पूरे करियर के दौरान कपूर ने पूंजीवादी प्रणालियों की खामियों और असमानताओं के बारे फिल्मो के जरिए अपनी आवाज उठाई. कपूर ऐसा करके न सिर्फ फिल्मी दुनिया के चैंपियन बने साथ ही सामाजिक न्याय के भी चैंपियन बन गए.


राज कपूर -सामाजिक न्याय के चैंपियन और पूंजीवाद के आलोचक


श्री 420 और जागते रहो जैसी फिल्मों में कपूर ने आम आदमी की दुर्दशा को उजागर किया. दोनों ही फिल्मों में कपूर ने आम आदमी की कहानी दिखाई जो अक्सर पूंजीवाद वर्ग के लालच और स्वार्थ का शिकार होता था. कपूर ने श्रामिक वर्ग की कठोर वास्तविकताओं पर प्रकाश डाला. कपूर ने अपनी फिल्मों के जरिए अमीर और गरीब के बीच के फर्क को दिखाया. राज कपूर ने कई ऐसी फिल्मों का निर्देशन किया जो सीधे तौर पर पूंजीवादी धारणा को चुनौती देती थी.


छलिया और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों में कपूर ने जिंदगी के खोखलेपन को भी दिखाया. इन दोनों ही फिल्मों में कपूर ने उन सामाजिक मुल्यों पर सवाल उठाए जो रिश्तों के बजाय पैसों को तरजीह देते हैं. अपने पूरे करियर के दौरान राज कपूर ने पुंजीवाद के मूल सिद्धांतों का सीधे विरोध किया. 'आवारा' और 'सत्यम शिवम सुंदरम' जैसी फिल्मों में कपूर ने लोगों को बुनियादी और बराबर का हक दिए जाने के लिए आवाज उठाई. 
कपूर एक ऐसे समाज में विश्वास रखते थे जहां हर कोई पूंजीवाद के बनाए गए आसमानताओं से आजाद रहे. 


राज कपूर ने श्री 420 में एक चालाक कारोबारी की कहानी दिखाई. उन्होंने 'जिस देश में गंगा बहती हैं ' में निर्दयी कारोबारी की कहानी दिखाई. फिल्म के जरिए कपूर ने पूंजीवादी व्यवस्थाओं के अंदर बैठे लोगों की हकीकत दुनिया के सामने रखी.  श्री 420  और 'जिस देश में गंगा बहती हैं ' फिल्म के बाद लोगों ने पूंजीवादी प्रणाली पर सवाल उठाना भी शुरू कर दिया .


मैं 'मुक़द्दस उरियाँ' हूं


राज कपूर के बारे में एक किस्सा आम है कि उन्होंने फिल्मी दुनिया में नग्नता की शुरुआत की. राजकपूर खुद इस बात से सहमत थे. वो कहते थे कि मैं 'मुक़द्दस उरियाँ' (पवित्र नग्नता) को मानता हूं, मैंने बचपन में अपनी मां के साथ नहाया है. उन्होंने अपनी ऑटो बायोग्राफी 'राज कपूर वन एंड ओनली शोमैन' में इसका खुलासा किया है. 


राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा ने एक इंटरव्यू में बताया था 'पापा जब डेढ़ या दो साल के थे तो उनके गाँव में कुछ औरतें भुने चने बेचा करती थी. एक बार राज चने लेने गए. उन्होंने नीचे कुछ भी नहीं पहना था, ऊपर एक कमीज पहनी हुई थी. उस छोटे से लड़के को नंगा देख कर चने बेचने वाली लड़की ने कहा कि अगर वो अपनी कमीज ऊपर उठा कर उसकी कटोरी बना ले, तो वो उन्हें चने दे देगी. राज ने जब ऐसा किया तो उस लड़की का हंसते हंसते बुरा हाल हो गया."


फिल्म 'बॉबी' में एक सीन है जब ऋषि कपूर पहली बार डिंपल से मिलने उनके घर जाते हैं. ये किस्सा भी राज कपूर की जिंदगी से जुड़ा हुआ है. राज कपूर किदार शर्मा के असिस्टेंट मात्र थे और नरगिस बड़ी स्टार बन चुकी थीं, राज कपूर वो अपनी फिल्म 'आग' महालक्ष्मी स्टूडियो में शूट करना चाहते थे. नरगिस की माँ जद्दन बाई वहाँ अपनी फिल्म 'रोमियो-जूलियट' शूट कर रही थीं. राज कपूर स्टूडियो में कैसी सुविधाएं हैं, ये जानने के लिए उनसे मिलने उनके घर पहुंच गए."


जब राज कपूर ने घंटी बजाई तो नरगिस पकौड़े तल रही थीं. दरवाजा नरगिस ने खोला और उनके हाथों का बेसन उनके बालों से छू गया. राज कपूर ने नरगिस की उस छवि 'बॉबी' फिल्म में उतारा ." राज कपूर ने अपने फिल्मी करियर में कई हिट फिल्में दी. इनमें अवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर के अलावा राम तेरी गंगा मैली, बरसात, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, संगम जैसी फिल्में शामिल हैं.


 1988, वो दिन जब चार्ली चैपलिन के लिए रोई दुनिया


भारत के चार्ली चैपलिन यानी राज कपूर अपनी फिल्मों के जरिए अन्यायपूर्ण दुनिया में न्याय की तलाश करते रहे. 63 साल की उम्र में  2 जून 1988 को राज कपूर को दिल का दौरा पड़ा. तब वो दिल्ली के अपोलो अस्पताल में थे. आखिरी दिनों में राज कपूर कई दिनों तक कोमा में रहे. पर्दे पर राज के कट्टर प्रतिद्वंद्वी और ऑफ-स्क्रीन अपने सबसे अच्छे दोस्त यूसूफ खान यानी दिलीप कुमार अन्तिम क्षणों में राज कपूर से मिलने आए थे. 


दिलीप अस्पताल गए तो देखा कि उसका दोस्त बिस्तर पर बेहोश पड़ा हुआ था, शरीर बेजान था. दिलीप कपूर को 'लाले दी जान' कहते थे. उस दिन भी कपूर को देख कर दिलीप कुमार ने उनका हाथ पकड़ लिया और लाले दी जान जग जा... कहते हुए कपूर को जगाने लगे.  दिलीप ने उन्हें उन सभी बाज़ारों और कबाबों की याद दिलाई, जिनका आनंद वे पेशावर की सड़कों पर लिया करते थे. उन्होंने राज से कहा कि वह पाकिस्तान से अपने पसंदीदा कबाब की 'खुशबू' लाए हैं और उन्हें अब अभिनय करना बंद कर देना चाहिए. लेकिन राज कपूर न तो कुछ सुन रहे थे न कुछ बोल पा रहे थे.