तांडव के शुरू होने से पहले स्क्रीन पर एक वाक्य चमकता है: भाई हम तो धोखा खा गए, जैसा बहाना राजनीति में नहीं चलता. साफ है कि राजनीति और धोखा एक सिक्के के दो पहलू हैं. तांडव कदम-कदम पर धोखे की कहानी है. कुर्सी के इस खेल में कोई सही या गलत के साथ नहीं होता है. हर कोई राजनीति के साथ है. राजनीति मतलब, सत्ता और ताकत. देश में शासन कर रही दक्षिणपंथी पार्टी जन लोक दल (जेएलडी) जब तीसरी बार आम चुनाव जीतने के कगार पर है तो यह भी तय है कि देवकी नंदन (तिग्मांशु धूलिया) ही फिर प्रधानमंत्री बनेंगे. लेकिन नतीजे आने से ठीक पहले दुनिया को उनकी मौत की खबर मिलती है. अब कुर्सी का दावेदार है उनका पुत्र समर प्रताप सिंह (सैफ अली खान) लेकिन पर्दे के पीछे ऐसा खेल होता है कि तीस साल से देवकी नंदन की 'खास' रहीं अनुराधा किशोर (डिंपल कपाड़िया) पीएम बन जाती हैं.



तांडव का ताना-बाना इसी घटनाक्रम के चारों ओर बुना गया है. साथ ही देश की तस्वीर दिखाने की कोशिश भी है. एक तरफ शाइनिंग इंडिया है, जो नेता और उद्योगपति साठ-गांठ से बना रहे हैं. दूसरी तरफ है भारत. जिसमें किसान-मजदूर और आम आदमी हैं. ये लगातार कसते इंडिया के शिकंजे से भारत की आजादी चाहते हैं. छात्र राजनीति की गलियों में इस आजादी की आवाज मुखर है और इसलिए सत्ता के हाथों में खेलता एक पुलिस अधिकारी कहता हैः अब टेररिस्ट बॉर्डर पार से न आ रहे. ये इन युनिवर्सिटियों में तैयार हो रहे हैं. यहां रातों-रात छात्र राजनीति में चमका सितारा शिव शेखर (मोहम्मद जीशान अयूब) लोगों की उम्मीद बन जाता है. कहानी शुरू से अंत तक राजनीति के दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में रहती है.



वास्तव में तांडव जो राजनीति दिखाती है, देश का आम आदमी उससे ज्यादा जानता है. इससे गंदी राजनीति उसने देखी और भुगती है. तांडव की कहानी स्लोमोशन जैसी शुरू होती है और पहले पांच-छह एपिसोड में लगभग सूचनाएं ही परोसती रहती है. उसका भावनात्मक ग्राफ काफी देर बात उठता है. इस लिहाज से यह दर्शक से बहुत धैर्य की अपेक्षा करती है. लेखक-निर्देशक ने घटनाओं, किरदारों और संवादों के स्तर पर यहां देश की राजनीति के नए-पुराने किरदारों और किस्सों को कहानी में पिरोया है. किरदारों-घटनाओं से आपको कुछ-कुछ असली भी याद आता रहता है. अमेजन प्राइम के इस महंगे राजनीतिक ड्रामे को खूब खींच-तान कर बनाया गया है. बुनावट में कसावट का अभाव है. कई जगह कहानी की रफ्तार बहुत धीमी और कई बार डॉक्युमेंट्री की तरह लगती है. पार्टी बैठक से लेकर पीएम की शपथ तक के सीन दूरदर्शनिया अंदाज में हैं.



तांडव में देश की सत्ता की राजनीति और छात्र राजनीति की कहानियां रेल की पटरियों की तरह समानांतर चलती हैं. दोनों के घटनाक्रम एक-दूसरे से जुदा और अलग-अलग समय में घट रहे मालूम पड़ते हैं. ऐसा लगता है कि निर्देशक उन्हें जबर्दस्ती जोड़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन कोई फेवीकोल नहीं मिल रहा. यह संयोग है कि दिल्ली सीमा पर 50 दिनों से किसान आंदोलन चल है और तांडव में भी किसान आंदोलन बड़े मुद्दे की तरह सामने आता है, जो कहानी बढ़ने के साथ पीछे छूट जाता है. तांडव में दक्षिणपंथी शासन में मुस्लिम नागरिकों को सत्ता का आसान शिकार दिखाया गया है. छात्र राजनीति के रंग यहां हैं, लेकिन मुख्य राजनीति के आगे फीके साबित होते हैं. वे कॉलेज, हॉस्टल, पुलिस थाने की त्रिकोण से बाहर नहीं निकलते. स्टूडेंट लीडर के रूप में मोहम्मद जीशान अयूब अच्छी शुरुआत करते हैं लेकिन उनका किरदार बीच-बीच में पटरी से उतरता रहता हैं.



तमाम कलाकारों जो सबसे ज्यादा छाप छोड़ता है, वह हैं डिंपल कपाड़िया. उन्होंने अपनी भूमिका को विश्वसनीय बना दिया है. सैफ को नायक होने का लाभ मिलता है. वह न तो नेता के रूप में जमते हैं और न तानाशाह जैसे नजर आते हैं, आखिर हिस्से में जरूर उनकी पारी कुछ जमती है, जब समर प्रताप सिंह किंग मेकर की भूमिका में आ जाता है. सुनील ग्रोवर अच्छे अभिनेता हैं और यहां मिले मौके को उन्होंने भुनाया है. अन्य कलाकार अपनी-अपनी जगह फिट हैं. गुजरे जमाने के नवाबों के वंशज, सैफ अली खान के महल की झलक यह वेबसीरीज देखने की एक अच्छी वजह है. कैमरावर्क और किरदारों की ड्रेसें भी यहां आकर्षक हैं.


तांडव को लेकर प्रचार और दावे हो रहे थे कि यह सीरीज भारत की अमेरिकन पॉलिटिल थ्रिलर हाउस ऑफ कार्ड्स साबित हो सकती है परंतु यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि दिल्ली अभी दूर है. अमेजन प्राइम की नौ कड़ियों वाली यह सीरीज काफी डांवाडोल होने के बाद दूसरे हिस्से में थोड़ी संभल पाती है. अंत भला तो सब भला कहावत ऐसे मामलों के लिए ही बनी है. यह तांडव का पहला सीजन है और कहानी के कुछ सवालों के जवाब अभी नहीं मिले हैं. दूसरे सीजन में उनका तलाश रहेगी.