निर्देशकः रेणुका शहाणे
कलाकारः काजोल, मिथिला पालकर, तन्वी आजमी, कुणाल रॉय कपूर, वैभव तत्ववादी
रेटिंग: *** (तीन स्टार)


हिंदी सिनेमा के सौ साल से अधिक के इतिहास में गिनती की फिल्में बनी हैं जिनमें मां-बेटी के रिश्तें केंद्र में रहे हों. त्रिभंगः टेढ़ी मेढ़ी क्रेजी तीन पीढ़ियों की मां-बेटी की कहानी है. इस लिहाज से यह खास है. अक्सर जिंदगी परिवारों में अपने आप को दोहराती है. वह गुजरती नहीं है. डीएनए की तरह सुख-दुख भी मां से बेटी को मिलते हैं. मां ने जो जिंदगी गुजारी, आंसू और मुस्कान के अलग रंग-रोगन के साथ वही बेटी के जीवन के कैनवास पर उभरने लगती हैं. निदा फाजली का शेर हैः बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता/जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता.


नेटफ्लिक्स पर आज रिलीज हुई लेखक-निर्देशक रेणुका शहाणे की फिल्म में तीन पीढ़ियों की स्त्रियों का दर्द गुजरता नहीं है. वह ठहरा रहता है. एक से दूसरी के पास पहुंचता है और नया चक्र शुरू होता है. क्या यह टूटेगा या सिर्फ सांसें टूटेंगी. त्रिभंग कोमा में अस्पताल के बिस्तर पर लेटी नयनतारा आप्टे (तन्वी आजमी), बॉलीवुड स्टार और ओडिशी डांसर अनुराधा आप्टे (काजोल) और माशा मेहता (मिथिला पालकर) के रिश्तों की कहानी है. नयन और अनु ने अपनी शर्तों पर जिंदगी जी है. समाज की मान्यताओं/रूढ़ियों के खिलाफ उन्होंने बार-बार बगावत की.



नयन लेखिका है और साहित्य अकादमी समेत अनेक सम्मान पाकर उसने अकेले अपने दो बच्चों के साथ जीवन गुजारा है. अनु एक रूसी युवक के साथ लिव-इन में रह कर प्रेग्नेंट हुई. उसने बच्ची को जन्म दिया मगर कभी विवाह नहीं किया. वह विवाह को ‘सोसायटी टेररिज्म’ मानती रही. नयन और अनु का जीवन कभी स्थिर नहीं रहा. दोनों के जीवन में पुरुष आते-जाते रहे. दोनों ने समाज में अपनी प्रतिभा और जिद से जगह बनाई. मगर माशा दोनों से बिल्कुल अलग है. उसने पारंपरिक गुजराती परिवार की बहू बनना पसंद किया. नानी और मां की टूटी-बिखरी जिंदगी को देखने के बाद माशा को अपनी संतान के लिए स्थिर-सामान्य जिंदगी चाहिए.


त्रिभंग में तीनों पीढ़ियां मौके-बेमौके आमने-सामने हैं. यहां बच्चों ने मां को कमोबेश उसकी जगह से बेदखल किया हुआ है. उनके अपने दुख और दर्द के अनुभव हैं.



रेणुका शहाणे की यह कहानी सीधी-सरल है लेकिन उसका अंदाज टेढ़ा-मेढ़ा-क्रेजी है. इसलिए गंभीर बात करते हुए भी यह किसी स्तर पर ऊबऊ या झिलाऊ नहीं लगती. फिल्म का क्राफ्ट सुंदर है और तीनों महिलाओं की कहानी कम में ज्यादा कही-सुनी गई है. घटनाओं के साथ यहां भावनाओं को बराबर जगह दी गई है. इसलिए फिल्म से कभी दर्शक का ध्यान नहीं हटता. रेणुका ने स्क्रिप्ट को कसा है और फिल्म को एडिटिंग ने सुंदर बनाया है. लेखक-निर्देशक के रूप में रेणुका की यह पहली हिंदी फिल्म है और इसके लिए वह प्रशंसा-पुरस्कार की हकदार हैं. अभिनेत्री के रूप में शोहरत पाने वाली रेणुका ने 2009 में मराठी में फिल्म रीटा से निर्देशन की दुनिया में कदम रखा था.



त्रिभंग में दो अहम पुरुष किरदार भी हैं. अनु के छोटे भाई के रूप में रवि बने वैभव तत्ववादी और नयन के प्रशंसक तथा जीवनी लेखक कुणाल रॉय कपूर. कुणाल ने बेहतरीन अभिनय किया है और डेल्ही बैली (2011) के करीब एक दशक बाद उन्हीं ऐसी भूमिका मिली, जिसमें वह फिल्म खत्म होने के बाद भी याद रहते हैं. कंधे पर लैपटॉप/कैमरे का बैग लिए हिंदी लेखक की बॉडी लैंग्वेज, व्यावहारिक झिझक और संवाद अदायगी को उन्होंने बढ़िया ढंग से पकड़ा है. उन्होंने बताया है कि अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छा निर्देशक मिलने पर वह प्रभावी अभिनय कर सकते हैं. मिथिला पालकर और तन्वी आजमी अपनी भूमिकाओं से न्याय करती हैं मगर कालोज ने त्रिभंग में जान फूंकी है. उन्होंने खुल कर इस भूमिका को जिया है. हिंदी सिनेमा में अच्छी बात यह हो रही है कि कहानियों के केंद्र में उम्र के दायरे टूट रहे हैं. इससे काजोल जैसी बढ़िया अभिनेत्रियों के सामने रिटायर होकर घर बैठने की मजबूरी खत्म हो चुकी है.



मीडिया की बेइज्जती और खास तौर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की, आजकल की फिल्मों-वेबसीरीजों का मुख्य फीचर हो चली है. हालांकि अब वास्तविक जीवन में भी लोग मीडिया पर मुखर होकर बोलने लगे हैं. त्रिभंग के संवादों में कैमरा-माइक पकड़े मीडिया और इसमें काम करने वालों को जिस तरह से जलील किया गया है, इतना साफ और स्पष्ट आपने पहले नहीं देखा होगा.