भारत में होने वाले आम चुनाव से पहले सभी पार्टियां अपने-अपने तरीके से ज्यादा से ज्यादा वोटर्स को अपनी तरफ करने की पूरी कोशिश में लगी हुई है. इसी बीच ओबीसी आरक्षण को सब-कैटेगरी में बांटने की संभावना को लेकर बनाई गई रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है. 


यह रिपोर्ट ऐसे समय में सौंपी गई है जब विपक्ष लगातार जाति जनगणना की मांग कर रहे है. दरअसल 26 विपक्षी पार्टियों का गठबंधन INDIA अगले साल होने वाले आम चुनाव में बीजेपी को मात देने के लिए पिछड़ी और अनुसूचित जाति के वोटरों को साधने का प्रयास कर रही है. 


ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ओबीसी आरक्षण को सब-कैटेगरी में बांटने का पूरा मामला क्या है और जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट इतनी अहम क्यों है? 


पहले जानते हैं क्या है ओबीसी जातियों का वर्गीकरण के मामला 


मंडल कमीशन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में ओबीसी जाति के सभी लोगों को  केंद्रीय एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन में नामांकन से लेकर नौकरियों तक में 27 प्रतिशत का आरक्षण मिलता है. 


अब दिक्कत ये है कि केंद्र सरकार की ओबीसी लिस्ट में 3000 जातियां हैं. लेकिन कुछ जातियां ही ऐसी है जो फिलहाल ओबीसी आरक्षण का लाभ उठा पा रही हैं. ऐसे में आरक्षण को सब-कैटेगरी में बांटने को लेकर बहस होती रहती है, ताकि इसका लाभ सभी जातियों को बराबर मिल सके.


कब और क्यों बनाया गया रोहिणी आयोग


ओबीसी जातियों का वर्गीकरण के बहस के बीच केंद्र सरकार ने 2 अक्टूबर, 2017 को ओबीसी की केंद्रीय लिस्ट को बांटने के मकसद से एक आयोग बनाने की घोषणा की. इसका नाम रखा गया रोहिणी आयोग और दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी इसके अध्यक्ष बनें. उनके नाम के कारण ही आयोग का नाम भी रोहिणी ही रखा गया. 2017 में गठित इस आयोग को अब तक 13 बार विस्तार मिल चुका है. 


रोहिणी आयोग को सरकार ने उसे तीन काम सौंपे थे.



  • ओबीसी के अंदर अलग-अलग जातियों और समुदायों को आरक्षण का लाभ कितने असमान तरीके से मिल रहा है इसकी जांच करना.

  • ओबीसी के बंटवारे के लिए तरीका, आधार और मानदंड तय करना.

  • ओबीसी के उपवर्गों में बांटने के लिए उनकी पहचान करना. 


क्यों महत्वपूर्ण है रोहिणी आयोग?


रोहिणी आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत किया गया था. ये आयोग कितना महत्वपूर्ण है ये इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब तक इस अनुच्छेद के तहत दो ही आयोग बनाए गए हैं. जिनमें से एक आयोग का नाम मंडल कमीशन है. मंडल कमीशन के रिपोर्ट के आधार पर ही देश की 52 प्रतिशत आबादी को केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है.


इसी अनुच्छेद के तहत पहला पिछड़ा वर्ग आयोग यानी काका कालेलकर आयोग बना गया था. ये आयोग मंडल कमीशन से पहले बनाया गया था.


अब बात रोहिणी आयोग की करें तो इसे बनाने के पीछे तर्क यह था कि देश का एक बड़ा वर्ग ओबीसी का है जिसके अंदर हजारों जातियां हैं. ये हजारों जातियां सामाजिक विकास के क्रम में अलग-अलग स्थान पर हैं. 
इनमें से कुछ जातियां ऐसी भी हैं जो आरक्षण के प्रावधानों का इस्तेमाल करने के लिए बेहतर स्थिति में है. जबकि कुछ ऐसी जातियां हैं जो जरूरतमंद होने के बाद भी आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाती हैं.


रोहिणी आयोग की रिपोर्ट क्यों है अहम?


राजनीतिक जानकारों की कहना है कि केंद्र सरकार ने ये कवायद समाज के 'सबसे पिछड़े' लोगों को लुभाने के लिए शुरू की थी. अब रोहिणी आयोग ने राष्ट्रपति को जो रिपोर्ट सौंपी है वह राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकती है क्योंकि आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से लेकर INDIA तक सभी पार्टियां अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटरों को अपनी तरफ करने की कोशिश में लगी हुई है.


भारत में लगभग 40 प्रतिशत से ज्यादा ओबीसी मतदाता हैं और चुनाव से पहले कोई भी पार्टी सबसे बड़े वोटिंग ब्लॉक को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती है. 


बीजेपी के लिए मिशन 2024 में ओबीसी वोट कितना अहम है?


इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में बीजेपी के एक ओबीसी सांसद ने बताया कि पार्टी 'सबका साथ, सबका विश्वास' के लिए प्रतिबद्ध है. बीजेपी यह सुनिश्चित करना चाहती है कि भारत के सभी समुदायों तक सामाजिक न्याय पहुंचे. उन्होंने कहा कि पार्टी इस विषय की संवेदनशीलता को समझती है, इसलिए वह देखेगी कि कोई भी समुदाय इससे नाराज न हो.


पिछले चुनावों में ओबीसी ने दिया बीजेपी का साथ


बीजेपी के लिए ओबीसी वोट बैंक कितना जरूरी है ये तो पिछले चुनावी नतीजों पर नजर डालने से साफ हो ही जाता है. साल 1990 के दशक में भारतीय जनता पार्टी को मंडल की राजनीति का मुकाबला करने के लिए बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा था और इसका काट पार्टी ने हिंदुत्व में खोजने की कोशिश की. 


भले ही साल 1998 और साल 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में कड़ी मेहनत कर जीत हासिल कर ली और गठबंधन सहयोगियों के साथ एनडीए सरकार का बनाने में कामयाब हो गई, लेकिन उस वक्त भी क्षेत्रीय दल बहुत मजबूत बने रहे. साल 1998 और 1999 में  क्षेत्रीय दलों को क्रमश: 35.5% और 33.9% वोट मिले. इन क्षेत्रीय दलों के वोट बैंक का एक बहुत बड़ा हिस्सा ओबीसी वोटों का है.


यहां तक की साल साल 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 31% वोटों के साथ अपने दम पर बहुमत हासिल किया था, क्षेत्रीय दलों को 39 प्रतिशत वोट मिले थे. लोकनीति-सीएसडीएस नेशनल इलेक्शन स्टडीज के आंकड़ों के अनुसार साल 2014 के आम चुनाव में ओबीसी वोटों का 34 प्रतिशत हिस्सा भारतीय जनता पार्टी को जबकि 43 प्रतिशत हिस्सा क्षेत्रीय दलों को मिला था.


साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने ओबीसी मतदाताओं के बीच बड़े पैमाने पर घुसपैठ की और क्षेत्रीय दलों के वोट बैंक में सेंध लगाई. इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों का ओबीसी वोटों में शेयर कम होकर 26.4 प्रतिशत रह गया, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी बढ़त हासिल करते हुए 44 फीसदी ओबीसी वोट अपने पाले में किए.