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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

बगैर मर्जी की शादी और बादाम गिरियों का कमाल, अखाड़े में उतरा दीदार रंधावा बन गया कुश्ती का बेताज बादशाह

''पहलवान का रिश्ता फिल्मों से नहीं, लेकिन फिल्म वाले ले आए'' कहने वाले कुश्ती के शंहशाह दारा सिंह जब अदाकारी की दुनिया में उतरे तो यहां भी अपनी अलग पहचान कायम की और पूरी दुनिया में छा गए.

मैं तो कभी फिल्म देखने भी नहीं गया था... बीबीसी के लंदन स्टूडियो में दिए गए एक इंटरव्यू में दारा सिंह ने ये कहा था, लेकिन जब वो साल 1961 में कुश्ती के अखाड़े से फिल्मी अखाड़े में उतरे तो उन्होंने कोई दांव खाली नहीं जाने दिया. फिर चाहे वो 'जब वी मैट' फिल्म के दादा जी हो या रामानंद सागर की रामायण के हनुमान. पवन पुत्र हनुमान के तौर पर दुनिया को अलविदा कहने के बाद भी लोगों के दिलो-दिमाग में अभी भी उनका चेहरा ही सामने उभर कर आता है.

अदाकारी में इस तरह की यादगार छाप छोड़ने वाले दारा सिंह का असली नाम दीदार सिंह रंधावा था. पंजाब में अमृतसर के एक गांव धरमूचक में बलवंत कौर और सूरत सिंह रंधावा के घर 19 नवंबर 1928 को पैदा हुए बच्चे दीदार का बचपन और जवानी भी कम दिलचस्प नहीं रही. आज कुश्ती और अदाकारी के इस बादशाह से जुड़े किस्सों की यादें ताजा करने का दिन एक बार फिर आ पहुंचा है.

बगैर मर्जी की शादी और बादाम की गिरियां

दारा सिंह की शादी कम उम्र में ही हो गई थी, लेकिन उनके घरवालों ने उनका ये रिश्ता उनकी मर्जी पूछे बगैर ही तय कर दिया. उस पर उनकी जीवनसंगिनी बचनो कौर उनसे उम्र में बड़ी थी. दारा सिंह खुद बालिग होने से पहले ही 17 साल की उम्र में प्रद्युम्न रंधावा के पिता बन गए. दारा की मां बलवंत कौर ने उनकी सेहत बनाने के लिए उन्हें जमकर बादाम की गिरियां खिलाई.

ये गिरियां उन्हें खांड और मक्खन में कूट-कूट कर खिलाई गईं. उस पर भैंस का शुद्ध दूध भी पिलाया गया. मां की मेहनत रंग लाई और बाद में इसी खाने-पीने ने दीदार सिंह को दारा सिंह बनाया. उनके छोटे भाई सरदारा सिंह और उन्होंने मिलकर गांव में अपनी पहलवानी से धाक जमाई. गांव के दंगलों में उनकी चर्चाएं हुईं तो शहरों में अपनी कुश्ती के दांवों से दोनों भाईयों ने गांव की पहचान बनाई.

ये पहलवानी दारा सिंह के नाम के साथ ऐसी जुड़ी की आज भी लोग 'खुद को दारा सिंह समझ रहे हो क्या' जैसे जुमलों से उनकी ताकत की मिसालें दिया करते हैं. दारा सिंह पहलवानी में बेहद शोहरत पा चुके थे और उसी दौरान उनकी दूसरी शादी सुरजीत कौर से हुई. दूसरी शादी से उन्हें तीन बेटियां और दो बेटे हैं. उनके बेटे बिंदु दारा सिंह भी अभिनेता है.

कुश्ती ने दी शोहरत और फिल्मों ने दी दौलत

दारा सिंह कहा करते थे कि कुश्ती ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया, तो फिल्मों ने उन्हें दौलत का स्वाद चखाया. कुश्ती की ये शोहरत ही थी जो अदाकारी की दुनिया वालों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. यही वजह रही की पहलवानी हमेशा उनका पहला इश्क रही. देश की आजादी के साल दारा सिंह सिंगापुर चले गए थे. यही से उनका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुश्ती जीतने का दौर शुरू हुआ.

कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप में उन्होंने भारतीय स्टाइल में मलेशियाई चैम्पियन तरलोक सिंह पटखनी दी. इसके बाद उनकी जीत का ये सिलसिला चलता रहा. एक पेशेवर पहलवान पर अपना जलवा बिखरेने के बाद 1952 में वो भारत लौट आए. यहां भी उन्होंने अपनी जीत का जादू बरकरार रखा. देश में उन्होंने अपनी पहलवानी का परचम 1954 में वे भारतीय कुश्ती चैम्पियन बनकर लहराया.

कुश्ती का ऐसा जलवा की वो रुस्तम-ए-पंजाब और रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाजे गए. इसके बाद दारा सिंह ने कॉमनवेल्थ देशों रुख किया. ओरिएंटल चैम्पियन किंग कांग को धूल चटा डाली. इस मुकाबले में दारा सिंह ने किंगकांग की मूंछों के बाल तक उखाड़ डाले थे. इसके बाद  कनाडा और न्यूजीलैंड के पहलवानों की खुली चुनौती का जवाब भी उन्होंने शानदार तरीके से दिया. आखिरकार साल 1959 में कलकत्ता में हुई कॉमनवेल्थ कुश्ती चैम्पियनशिप में कनाडा के चैंपियन जॉर्ज गोडियांको और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा को हराकर ये खिताब भी अपने नाम कर लिया. 

दारा सिंह यहीं नहीं रुके वो फ्रीस्टाइल कुश्ती वाले सभी देशों घूमे. उन्होंने फिल्मों में आने के बाद एक इंटरव्यू में कहा था कि जब-तक विश्व चैंपियनशिप न जीत लूं, मैं कुश्ती लड़ता रहूंगा. आखिरकार 29 मई 1968 को वो दिन भी आ पहुंचा, जब दारा सिंह अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को हराकर फ्रीस्टाइल कुश्ती के बेताज बादशाह बने.

55 साल तक पहलवानी के दौर में उनके 500 मुकाबलों में एक भी ऐसा नहीं रहा, जिसमें उन्हें हार का स्वाद चखना पड़ा हो. साल 1983 में कुश्ती का आखिरी मुकाबला जीत कर उन्होंने पेशेवर कुश्ती को अलविदा कह दिया. इसी वक्त उन्हें देश के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपराजेय पहलवान के खिताब से नवाजा. 

थामा कलम का साथ

पहलवानी कुश्ती के दौर के बाद भी दारा सिंह इतिहास रचने से पीछे नहीं रहे. उन्होंने अखाड़े के बाद कलम को अपना साथी बनाया. नतीजन उन्होंने साल 1989 में पंजाबी में अपनी ऑटोबायोग्राफी 'मेरी आत्मकथा लिख डाली. साल 1993 में उनकी जिंदगी का ये फसाना हिंदी में भी प्रकाशित हुआ.  फिल्मों में आने के बाद वह केवल अदाकारी तक सीमित नहीं रहे उन्होंने 41 साल की उम्र में 'नानक दुखिया सब संसार' फिल्म बनाई. ये उन्होंने खुद ही डायरेक्ट और प्रोड्यूस की. ये फिल्म 1971 में लंदन में रिलीज हुई. 

साल 1978 में उन्होंने 'भक्ति में शक्ति' फिल्म लिखी ही नहीं बल्कि डॉयरेक्ट भी की. हिंदी ही नहीं बल्कि पंजाबी में भी दारा सिंह ने फिल्में बनाईं. ' सवा लाख से एक लड़ाऊं' पंजाबी फिल्म सहित उन्होंने पंजाबी की लगभग 10 फिल्में बनाई. फिल्मों की कहानी को लेकर उनका कहना था कि कहानी ही सबकुछ है ,कहानी नहीं तो फिल्म बनाने का कोई मकसद नहीं है. दारा सिंह ने 55 साल के फ़िल्मी करियर में 110 से अधिक फिल्मों में अभिनेता, लेखक और निर्देशक तौर पर भी काम किया.

उनका फिल्मी करियर संगदिल, झलक, सिकंदर-ए-आजम और डाकू मंगल सिंह से शुरू हुआ तो साल 2007 में आई इम्तियाज अली की फिल्म 'जब वी मैट में' वो करीना कपूर के दादा के जोरदार किरदार में थे. उनकी आखिरी फिल्म गेस्ट अपीयरेंस के तौर पर साल 2012 में आई 'अता पता लापता' रही.  फिल्म 'जग्गा' के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर के अवॉर्ड से नवाजा गया. रामानंद सागर की रामायण में उनका अदा किया राम भक्त हनुमान का किरदार देश ही नहीं बल्कि विदेशों में छाया रहा. कहा जाता है कि इस किरदार के लिए दारा सिंह ने मांसाहार तक छोड़ दिया था. 

पंडित नेहरू से मिलने की चाह 

साल 1968 में वर्ल्ड चैंपियनशिप जीतने के बाद दारा सिंह को यूएस ने वहां की सिटीजनशिप देने का ऑफर दिया था, लेकिन वतनपरस्त दारा को ये रास नहीं आया. उन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया. वो वापस देश लौट आए और उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू को मिलने के लिए खत लिखा. इसमें उन्होंने पीएम नेहरू को अपने मिलने की 3 वजहें भी गिनाईं. सीमा सोनिक अलीमचंद ने अपनी किताब 'दीदारा उर्फ ​​दारा सिंह' में इस वाकए का जिक्र किया है.

किताब के मुताबिक दारा की पंडित नेहरू से मिलने की पहली वजह लोगों को ये बताना था कि वो उनसे मिले हैं. दूसरी वजह पीएम नेहरू को कॉमनवेल्थ चैंपियनशिप के लिए न्योता देना थी, तो तीसरी वजह उनके दोस्त कुश्ती प्रमोटर एम गोगी थे. दारा के दोस्त गोगी का सपना था कि वो पंडित नेहरू से मिले.

अपनी पहलवानी से लोगों को दीवाना बनाने वाले दारा ने पंडित नेहरू को 1956 में पहली बार देखा था, उसी के बाद वो उनके कायल हो गए थे. पीएम ऑफिस ने भी नेहरू के फैन दारा को निराश नहीं किया और उनके खत की इज्जत करते हुए उन्हें जवाब दिया. उन्हें कॉल करके उनकी नेहरू से मुलाकात का वक्त को बताया गया. दारा पंडित नेहरू से मिले.

पीएम नेहरू को दारा ने अपनी कुश्ती पहलवानी और विदेशी दौरों के बारे में रोचक बातें बताईं. इस मुलाकात का नतीजा ये निकला कि पीएम नेहरू ने भारत के पहलवानों के फायदे के लिए संघ बनाने का फैसला लिया. इतना ही नहीं दारा खेती-किसानी के साथ ही सामाजिक कामों और राजनीति से भी जुड़े रहे. उन्होंने जाट समुदाय की नुमाइंदगी की. साल 2003 में बीजेपी की दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया

दिल के दौरे से हारा पहलवान

7 जुलाई 2012 को दारा सिंह का दिल का दौरा पड़ा और इस दौरे के आगे कुश्ती का ये अपराजित रहने वाला पहलवान हार गया. दौरा पड़ने के बाद दारा सिंह को तुरंत मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल ले जाया गया. हालत में सुधार न देखते हुए 11 जुलाई को डॉक्टरों ने परिवार वालों से उन्हें घर ले जाने को कहा. इसके एक दिन बाद ही 12 जुलाई को अपने घर "दारा विला" में उन्होंने सुबह 7.30 बजे आखिरी सांस ली. हार को हराने वाला ये जांबाज योद्धा 84 साल में जिंदगी की जंग में हार मान गया. 

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