लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार केंद्र में सरकार बनाने में बड़ी भूमिका निभाती हैं. यूपी की 80 और बिहार की 40 सीटें मिलाकर कुल 120 सीटों का घमासान दिल्ली का रास्ता तय करता है. बात करें बिहार की तो हाल में ही हुए राजनीतिक घटनाक्रम के बाद अब जातीय गठजोड़ की सबसे बड़ी लड़ाई इस राज्य में देखने को मिल सकती है.


एबीपी न्यूज की ओर से बीजेपी के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद से जब पूछा गया कि बिहार में जातीय समीकरण पार्टी के पक्ष में नहीं है तो इन हालात का वह कैसे सामने करेगी? इस पर उनका कहना था कि बीजेपी अब बिहार में एकमात्र विपक्ष है. एलजेपी का एक अंश भी उनके साथ है. इसके साथ ही उन्होंने कहा, 'बिहार कई बार बड़ी रेखा भी खींचता है. 2014 में इतनी बड़ी रेखा खींच दी. सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की इतनी बड़ी संख्या हमारे साथ है. पिछड़ा अति पिछड़ा हमारे साथ जुड़ा है. जिसकी बानगी हमारे साथ दिखाई दी है.'


बिहार के ही पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने मंडल राजनीति से बनी पार्टी समाजवादी पार्टी को अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए लगातार दूसरी बार विधानसभा चुनाव में पटखनी दे चुकी है. यहां तक कि लोकसभा चुनाव से लेकर उपचुनाव तक के नतीजे भी सपा के पक्ष में नहीं है. समाजवादी पार्टी के मुस्लिम-यादव समीकरण को बीजेपी ने गैर यादव- गैर जाटव समीकरण से फेल कर दिया है. 


लेकिन बिहार के हालात बीजेपी के लिए इतने आसान नहीं है. यहां का इतिहास ही रहा है कि जब दो पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ती हैं तो तीसरी पार्टी को दोनों के संयुक्त वोटों के अंतर को पाटना काफी मुश्किल होता है. 90 के दशक में बिहार में बिहार की राजनीति में दो प्रमुख ध्रुव उभरकर सामने आए थे जिसमें एक चेहरा लालू प्रसाद यादव तो दूसरी ओर कभी उन्हीं के 'छोटे भाई' रहे नीतीश कुमार सामने थे. लालू यादव जनता दल (अब आरजेडी) और नीतीश कुमार समता पार्टी (अब जेडीयू) की अगुवाई कर रहे थे. नीतीश कुमार के साथ एक और बड़े नेता जॉर्ज फर्नांडीज भी थे. 


बात करें जातिगत समीकरणों की तो आरजेडी जहां यादवों के बीच लोकप्रिय है. तो नीतीश कुमार को कुर्मी नेता के तौर पर देखा जाता है. दोनों ही जातियां ओबीसी के दायरे में आती हैं. लेकिन सवाल इस बात का है कि जिस तरह से बीजेपी ने बीते कुछ वर्ष में पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच पैठ बढ़ाने की कोशिश की है, क्या उससे जेडीयू-आरजेडी गठबंधन के लिए खतरा साबित हो सकता है, जैसा कि उत्तर प्रदेश में हो चुका है.


बिहार में आरजेडी+जेडीयू के वोट बैंक 15 फीसदी यादव, 11 फीसदी कुर्मी-कोरी-निषाद और 17 मुसलमान फीसदी को मिला दें तो कुल 43 फीसदी हो जाता है. इस अंतर को पाटना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा. लेकिन अगर 15 फीसदी ऊंची जातियों, 26 फीसदी अति पिछड़ा और 16 फीसदी दलितों का वोट एक साथ आए आ जाए तो किसी भी पार्टी के लिए बिहार जीतना आसान हो सकता है.  ऐसा ही प्रयोग बीजेपी उत्तर प्रदेश में हाल ही के चुनाव में कर चुकी है. 


अति पिछड़ा (EBC) और दलित वोटों को एक साथ ले आना यूपी की तरह बिहार में आसान नहीं है. क्योंकि नीतीश कुमार ने साल 2005 में सीएम बनते ही पंचायत इलेक्शन में 20 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव लागू करके खुद को इन जातियों के नेता के तौर पर स्थापित करने की है. जिन कपूर्री ठाकुर को नीतीश कुमार अपना नेता मानते हैं उन्होंने खुद भी ईसीबी के लिए कोटा के अंदर कोटा प्रावधान 1977 में ही लागू कर दिया गया था. इसका नतीजा ये रहा है कि यूपी की तरह यादवों और अन्य ओबीसी जातियों में टकराव की नौबत बिहार में नहीं आने पाई. साल 2015 के चुनाव में भी बीजेपी को ईसीबी वोट मिलने की उम्मीद थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और ये सारा वोट तीनों ही पार्टियों के बीच बिखर गया.


यूपी की तरह बिहार में दलितों की कोई अलग पार्टी कभी खड़ी नहीं हुई. बीएसपी सुप्रीमो मायावती का प्रभाव बिहार में दलितों के बीच कभी नहीं हो पाया. इसकी एक वजह बिहार की राजनीतिक पार्टियों में दलित नेताओं को तवज्जो दी जाती रही है. एक समय वामपंथी पार्टियों का दलितों के बीच प्रभाव था लेकिन इसके बाद आरजेडी ने उनको अपने पाले में कर लिया. हालांकि इस बीच राम विलास पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दलित नेताओं ने अपनी पार्टी बनाकर मायावती जैसे करिश्मे की उम्मीद की लेकिन वो ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाए. जमीनी सच्चाई ये भी है कि बिहार में दलितों को किसी भी नेता ने मायावती जैसा 'गर्व' महसूस नहीं कराया है.


 2024 के लोकसभा चुनाव तक एनडीए और महागबंधन के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियां होंगी. नीतीश कुमार जहां 15 सालों की सत्ता विरोधी लहर का सामना करेंगे तो दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव की सक्रियता भी उतनी नहीं होगी. जमीन पर दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं को बांधे रखना भी नीतीश और तेजस्वी के लिए आसान नहीं होगा. तो दूसरी ओर बीजेपी ने इस बीच कई अति पिछड़े और पिछड़े नेताओं को बिहार में आगे किया है. अति पिछड़ी जाति नोनिया से ताल्लुक रखनी वाली नोनिया जाति की रेणु देवी को उपमुख्यमंत्री बनाया था. ओबीसी से ताल्लुक रखने वाली तारकेश्वर प्रसाद सिन्हा को भी बीजेपी ने  डिप्टी सीएम बनाया था जो कलवार जाति से आते हैं.  ईबीसी जातियों में खुद की पहचान की भावना उभर रही है. एक 'मास्टर स्ट्रोक' ईसीबी और दलित समुदाय को मोबाइलज कर सकता है.