Explained : कैसे बनी थी दुनिया की पहली वैक्सीन?
आज भले ही डॉक्टर औऱ वैज्ञानिक मिलकर कोरोना का टीका नहीं खोज पा रहे हैं. लेकिन 224 साल पहले एक ऐसा भी डॉक्टर था, जिसने दुनिया में पहली बार एक टीका बनाया था, जिसकी वजह से स्मॉल पॉक्स जड़ से खत्म हो गया.
फिलहाल पूरी दुनिया के डॉक्टर और वैज्ञानिक कोरोना वायरस की वैक्सीन की तलाश में हैं. फिलहाल किसी भी देश को कामयाबी नहीं मिल पाई है. और ये हाल तब है, जब दुनिया में तकनीक ने इतनी ज्यादा उन्नति कर ली है. लेकिन क्या आपको पता है कि दुनिया की पहली वैक्सीन कब और कैसे बनी थी. और वो कौन सी स्थितियां थीं, जिनमें पहली बार एक वैक्सीन को बनाया गया था.
बात करीब 224 साल पुरानी है. तब काउ पॉक्स बीमारी के लिए वैक्सीनिया नाम के वायरस को जिम्मेदार माना जाता था. उस वक्त इंग्लैंड में एक डॉक्टर था. नाम था एडवर्ड जेनर. 14 मई, 1796 की तारीख थी. एडवर्ड जेनर ने एक ग्वाले के हाथ में बने काउ पॉक्स के घाव से इंजेक्शन में पस निकाला और उसे 13 साल के एक बच्चे को लगा दिया. इस काउ पॉक्स वाले पस की वजह से बच्चे में स्मॉल पॉक्स के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई. इसे ही दुनिया का पहला वैक्सीनेशन माना जाता है. चूंकि काउ पॉक्स वाले वायरस का नाम वैक्सीनिया था तो इलाज के इस तरीके को वैक्सीन का नाम दे दिया गया.
एडवर्ड जेनर पहला ऐसा डॉक्टर था, जिसने उस वक्त के जानलेवा स्मॉल पॉक्स की वैक्सीन बनाई थी. आधिकारिक तौर पर ये वैक्सीन बनी थी साल 1798 में. हालांकि किसी बीमारी के खिलाफ खुद को तैयार करने के लिए उस बीमारी की हल्की डोज खुद में इंजेक्ट करने की प्रकिया 16वीं शताब्दी में चीन में शुरू हो गई थी. ये भी कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत में भी बीमारी के खिलाफ खुद को तैयार करने के लिए लोग उस बीमारी के वायरस की हल्की डोज खुद में इंजेक्ट कर लिया करते थे.
20वीं शताब्दी के आते-आते विज्ञान ने अच्छी खासी तरक्की कर ली थी और इस दौर में वैक्सीन बनाने की प्रकिया भी तेज हो गई थी. 1853 में पूरे ब्रिटेन में स्मॉल पॉक्स की वैक्सीन को लगवाना अनिवार्य कर दिया गया था. 1885 में रेबीज की भी वैक्सीन की खोज हो गई थी. इसे खोजा था फ्रेंचमैन लुईस पैस्टेअर ने. वहीं 1892 से 1898 के बीच पहली बार वायरस की भी खोज हो गई थी.
लुईस पॉश्चर ने 1897 में कॉलरा का टीका विकसित कर लिया था. वहीं इसी डॉक्टर ने 1904 में एंथ्रेक्स की भी वैक्सीन की तलाश की थी. 19वीं शताब्दी के अंत में प्लेग की भी वैक्सीन की खोज कर ली गई थी. 1920 से 1926 के दौरान टीबी या ट्यूबरक्यूलोसिस, डिफ्थीरिया, टेटनस और काली खांसी की वैक्सीन का विकास हो गया था. 1944 में फ्लू की भी वैक्सीन बन गई थी. 1950 से 1960 के बीच डिफ्थीरिया, टेटनस और काली खांसी तीनों बीमारियों की एक ही वैक्सीन बना ली गई थी. दुनिया के लिए 1986 वो साल था, जब हेपेटाइटिस बी की वैक्सीन बनाई गई थी. ये वैक्सीन जेनेटिकली इंजीनियर्ड थी. वहीं 1890 से 1950 के बीच विकसित किए गए बीसीजी के टीके का इस्तेमाल आज भी पूरी दुनिया में होता है.
हालांकि कई देशों में वैक्सीन को लेकर शुरुआत में कई तरह की अफवाहें भी फैलीं. इसका असर वैक्सीन के विकास पर भी पड़ा. पहली वैक्सीन स्मॉल पॉक्स के खिलाफ बनी और उसने स्मॉल पॉक्स को जड़ से खत्म कर दिया. बाद में पोलियो और टीबी की भी वैक्सीन बनी. ये कारगर भी हैं, लेकिन अब भी पोलियो और टीबी को जड़ से खत्म नहीं किया जा सका है. वहीं तकनीक के इतने विकास के बाद भी दुनिया भर के डॉक्टर और वैज्ञानिक मिलकर कोरोना जैसे वायरस से बचने के लिए कोई टीका बनाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं.