केंद्र सरकार की एक योजना है. अंग्रेजी में कहते हैं MPLADS. पुरा नाम है Members of Parliament Local Area Development Scheme. यानि कि संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना. एकदम आसान भाषा में कहें तो सांसद निधि. यानि वो पैसे, जिनसे कोई सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में विकास का काम करवाता है. फिलहाल ये रकम पांच करोड़ रुपये सालाना है. यानि कि एक सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में हर साल पांच करोड़ रुपये की लागत का विकास कार्य अपनी संसदीय निधि से करवा सकता है.


साल 1993 से ये योजना लगातार चल रही थी. लेकिन फिर आया 2020. और अपने साथ लाया कोरोना का वायरस. इससे लड़ने के लिए देश में लॉकडाउन कर दिया गया. सारी गतिविधियां ठप हो गईं और फिर तय किया गया कि देश के सांसदों को मिलने वाली सालाना पांच करोड़ की रकम अब अगले दो साल तक नहीं दी जाएगी. देश में सांसदों की कुल संख्या है 790. इसमें 545 लोकसभा सदस्य हैं और 245 राज्यसभा के सदस्य. पांच करोड़ रुपये साल के लिहाज से इन सांसदों की दो साल की निधि हो रही है 7900 करोड़ रुपये. इसी का इस्तेमाल इस्तेमाल कोरोना के खिलाफ चल रही लड़ाई में किया जाएगा. इसे देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने भी विधायकों को मिलने वाले फंड को एक साल के लिए रोक दिया और इससे बचने वाले 1209 करोड़ रुपये को कोरोना से लड़ने वाले फंड में इस्तेमाल करने का फैसला किया.


लेकिन पहले बात करते हैं सांसद निधि की. सांसद निधि लोकसभा के सांसद और राज्यसभा के सांसद दोनों की ही होती है. राज्य सभा के सांसद में राष्ट्रपति की ओर से नियुक्त सांसद भी हैं, जिन्हें सांसद निधि मिलती है. इनके पास ये अधिकार होता है कि अपने संसदीय क्षेत्र में हर साल ये पांच करोड़ रुपये तक के विकास के काम कर सकते हैं. राज्यों के विधायकों के साथ भी यही होता है. हालांकि हर राज्य के विधायक की निधि अलग-अलग होती है. दिल्ली जैसे राज्य में एक विधायक हर साल 10 करोड़ रुपये तक के विकास का काम करवा सकता है. पंजाब और केरल के विधायक हर साल पांच करोड़ रुपये तक के विकास का काम करवा सकते हैं. उत्तर प्रदेश के विधायक पहले दो करोड़ रुपये तक का काम हर साल करवा सकते थे, लेकिन अब उनका फंड बढ़ाकर तीन करोड़ रुपये कर दिया गया है. असम, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और कर्नाटक के विधायक दो करोड़ रुपये तक के विकास के काम हर साल अपने क्षेत्र में करवा सकते हैं.


लेकिन क्या सरकार की ओर से ये पैसे सीधे सांसदों या विधायकों के खाते में जमा कर दिए जाते हैं? जवाब है नहीं. ये पैसे आते हैं स्थानीय प्रशासन के पास. अब सांसद या विधायक स्थानीय प्रशासन जैसे डीएम को पत्र लिखकर अपने क्षेत्र में विकास काम की जानकारी देता है. फिर डीएम उस काम के लिए एजेंसी का चुनाव करता है. एजेंसी काम करती है और फिर डीएम की ओर से उसे पैसे मिल जाते हैं. सांसद के लिए विकास कार्य का मतलब है कि वो अपने इलाके में सड़कें बनवाए, स्कूल की बिल्डिंग बनवाए. इसमें भी एक क्लॉज होता है कि सांसद को अपनी साल की कुल निधि की 15 फीसदी रकम अनुसूचित जाति के विकास के काम पर खर्च करनी होगी और 7.5 फीसदी रकम अनुसूचित जनजाति के विकास पर खर्च करनी होगी. यानि कि पांच करोड़ में से 75 लाख रुपये अनुसूचित जाति के विकास पर खर्च होंगे और 37.5 लाख रुपये अनुसूचित जनजाति के विकास पर खर्च होंगे. हालांकि कोरोना के आने के बाद इस साल के लिए जो सांसद निधि मिली है, उसे सांसद अपने इलाके लिए पीपीई किट और कोरोना टेस्टिंग किट खरीदने पर भी खर्च कर सकते हैं.


वहीं विधायकों को मिलने वाले फंड का खर्च राज्यों के हिसाब से अलग-अलग होता है. उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे राज्य में विधायक अपने फंड का इस्तेमाल फॉगिंग मशीन और सीसीटीवी कैमरे लगवाने के लिए कर सकता है. इसके लिए विधायक को काम की लिस्ट बनाकर लोकल अथॉरिटी को देनी होती है और फिर अथॉरिटी उस काम की मॉनिटरिंग करके फंड जारी कर देती है.


इस सारे फंड की शुरुआत हुई थी, 1993 में. तब कांग्रेस की सरकार थी और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री हुआ करते थे. 23 दिसंबर को उन्होंने लोकसभा में इस योजना का प्रस्ताव रखा और कहा कि विपक्षी दलों के सांसद अपने क्षेत्र में विकास काम के लिए फंड की मांग कर रहे थे. विपक्ष की तरफ से इसकी मांग उठाई थी माकपा नेता और सांसद निर्मल कांति चटर्जी और सोमनाथ चटर्जी ने. तब की अल्पमत की नरसिम्हा राव सरकार उस दौरान भारी उथलपुथल से गुजर रही थी. इससे पहले नवंबर, 1993 में ही विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के पर कतरने की तैयारी कर रही है. इससे पहले के महीने में सरकार को विश्वास मत हासिल करना पड़ा था. उससे भी पहले पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे वी रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा में आया था और तब तक भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था. हालांकि वो प्रस्ताव गिर गया था, फिर भी लोकसभा में खूब हंगामा हुआ था. और जब नरसिम्हा राव ने 23 दिसंबर, 1993 को सांसदों के लिए वार्षिक निधि का प्रस्ताव रखा तो इसे सांसदों को रिझाने के तौर पर देखा गया, क्योंकि प्रधानमंत्री पहले ही बहुत से विरोध झेल चुके थे और वो अब सांसदों का समर्थन चाहते थे.


बात चाहे जो रही हो, लेकिन प्रस्ताव पास हो गया और फिर सांसदों के लिए निधि की शुरुआत हो गई. इसे देखते हुए राज्यों ने भी अपने-अपने यहां विधायकों को विधायक निधि देने का प्रस्ताव पास कर दिया. तब से अब तक करीब 27 साल तक ये योजना लगातार चलती रही है. शुरुआत में योजना के तहत सांसद हर साल एक करोड़ रुपये का काम अपने क्षेत्र में करवा सकते थे. 1997-98 में रकम बढ़कर दो करोड़ सालाना हो गई. 2011-12 में जब यूपीए 2 को दो साल बीत गए थे, तो उसने सांसद निधि को बढ़ाकर पांच करोड़ सालाना कर दिया था, जो अब भी बरकरार है. केंद्र सरकार का वित्त आयोग इस योजनी की देखभाल करता रहा है और इसके लिए पैसे जुटाता रहा है. साल 2018 में आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमिटी ने इस योजना के बारे में बात की थी और तय किया था कि 14वें वित्त आयोग तक ये योजना लगातार चलती रहेगी. और 31 मार्च, 2020 को 14वें वित्त आयोग का कार्यकाल खत्म हो गया है. हालांकि राज्य सरकारों के मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपवाद रहे हैं. 2010 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने बिहार में विधायक निधि ही खत्म कर दी थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने फिर से योजना शुरू कर दी और तब से वहां भी कभी विधायकों का फंड नहीं रोका गया है.


यही वजह है कि केंद्र के सांसद हों या फिर राज्यों के विधायक, सबने अपने-अपने क्षेत्र में काम करवाए हैं. स्थानीय स्तर पर पीने के पानी की बात हो या फिर शिक्षा की बात हो, स्वास्थ्य की बात हो, सफाई की बात हो या सड़कें बनवाने की ज़रूरत हो, सांसद और विधायक निधि से ये काम हुए हैं. एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ और सिर्फ सांसद निधि से साल 2017 तक 19 लाख अलग-अलग काम हुए थे, जिनकी कुल लागत 45,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की थी. सरकारी एजेंसियों के मुताबिक इनमें भी करीब 82 फीसदी काम ग्रामीण इलाकों में हुए हैं और बचे हुए 18 फीसदी काम शहरी और अर्धशहरी इलाकों में. कुल मिलाकर सांसद निधि हो या फिर विधायक निधि, उसने आम जनता का हित ही किया है.


लेकिन इस स्कीम की कुछ खामियां भी रही हैं. अगर संविधान के नज़रिए से देखें तो इसकी खामी ये गिनाई जा सकती है कि जिन सांसदों और विधायकों का काम कानून बनाना है, वो अब सड़कें बनवा रहे हैं. और इसकी वजह से सांसदों का असली काम प्रभावित हो रहा है, क्योंकि वो चुनाव के चक्कर में सिर्फ क्षेत्र के कुछ काम पर ही ध्यान देते हैं, जिससे देश का नुकसान होता है. इसलिए साल 2000 और फिर साल 2007 में इस स्कीम को बंद करने की बात हो रही थी. लेकिन फिर मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था. 6 मई, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि सांसदों को दी जाने वाली निधि पूरी तरह से संवैधानिक है. बाकी इसकी एक खामी ये भी गिनाई जाती है कि सांसद निधि या विधायक निधि से होने वाले कामों में खूब घोटाला होता है. स्थानीय स्तर पर जो काम होते हैं, उनका कोई ऑडिट नहीं होता, इसलिए काम की गुणवत्ता तय नहीं हो पाती है.


अब इस फंड को अगले दो साल तक के लिए रोक दिया गया है. सीधा मतलब है कि अब कोई सांसद अपनी निधि से अपने इलाके में स्कूल की बिल्डिंग, सड़कें, पीने का पानी, शौचालय या फिर विकास का कोई भी छोटा-मोटा काम नहीं करवा सकता है. उसकी जनता भी उससे एक बार भी नहीं पूछ पाएगी कि आपने इलाके के विकास के लिए क्या किया है, क्योंकि जनता को भी पता है कि सांसद के पास फंड नहीं है. सांसद भी अपनी जनता के प्रति जिम्मेदार नहीं रह पाएंगे, क्योंकि वो ये कहकर बच जाएंगे कि उनका फंड तो केंद्र सरकार ने रोक लिया है. और ये फंड है मात्र 7900 करोड़ रुपये. ये कितनी रकम होती है एक सरकार के लिए. इसे ऐसे समझिए कि केंद्र सरकार की ओर से कोरोना को देखते हुए 26 मार्च को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों की मदद के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये की मदद का ऐलान किया गया है. और सांसद निधि के रोके गए पैसे इस पूरी योजना का महज 4.5 फीसदी हिस्सा ही हैं. यानि कि ऊंट के मुंह में जीरा.