Explained : अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश का शांत रहना मोदी सरकार की सफलता है!
30 मई, 2020 को पीएम मोदी बतौर प्रधानमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा कर लेंगे. इस एक साल के दौरान मोदी सरकार की सबसे बड़ी सफलताओं में से एक सफलता ये भी है कि अयोध्या के फैसले के बाद हर मज़हब के लोगों ने इसे शांति के साथ स्वीकार कर लिया था.
6 अप्रैल, 1980. भारतीय राजनीति की वो तारीख, जब देश में एक नई पार्टी बनी, जिसका नाम है भारतीय जनता पार्टी. अपने गठन के 9 साल के बाद इस पार्टी का पालमपुर में एक अधिवेशन हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं की मौजूदगी में इस पार्टी ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर का प्रस्ताव पारित किया. ये पहली बार था, जब किसी राजनीतिक पार्टी ने अपनी राजनीति के एजेंडे में मंदिर निर्माण को शामिल किया था. इस अधिवेशन के बाद बीजेपी ने संघ के साथ मिलकर मंदिर बनाने की हर संभव कोशिश शुरू कर दी.
लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली, लेकिन यात्रा बिहार में ही थम गई. इसकी वजह से विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तो गिर गई, लेकिन मंदिर के पक्ष में माहौल बनने लगा. फिर कारसेवा हुई और 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई. राम मंदिर-बाबरी मस्जिद मामला 1949 से ही अदालत में था, लेकिन अब मस्जिद गिर गई थी. 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ज़मीन विवाद पर फैसला दिया. कोर्ट ने विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांट दिया था. ज़मीन रामलला, हिंदू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों के हिस्से में आई थी.
उस दौरान देश में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी चल रही थी. 3 अक्टूबर से गेम की शुरुआत होनी थी. देश की राजधानी विदेशी मेहमानों से भरी हुई थी. इसमें मीडिया भी था, खिलाड़ी भी थे और इंटरनेशनल लेवल के प्रतिनिधि भी थे. फैसले से पहले आशंका जताई जा रही थी कि फैसले के बाद हंगामा हो सकता है. लेकिन फैसला तीनों पक्षों के पक्ष में था, तो कोई हंगामा नहीं हुआ. तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हुआ करते थे. एहतियात के तौर पर और शहरों की सुरक्षा कड़ी की गई थी, लेकिन फैसले के बाद कोई बवाल नहीं हुआ. हालांकि तीनों पक्षों में से कोई भी इस फैसले से सहमत नहीं था और मामला पहुंच गया सुप्रीम कोर्ट.
9 मई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया. कहा कि पुरानी स्थिति बरकरार रहे. और मामले की सुनवाई चलती रही. करीब साढ़े आठ साल तक ये मामला सुप्रीम कोर्ट में चलता रहा. कई बार वकील बदले, कई बार बेंच बदली, कई बार नई-नई याचिकाएं दाखिल हुईं और मामले की सुनवाई चलती रही. आखिरकार जब जस्टिस रंजन गोगोई चीफ जस्टिस बने, तो ये तय हो गया कि अब मंदिर विवाद पर फैसला होकर रहेगा.
9 नवंबर, 2019 को फैसला आया और रामलला के पक्ष में आया. इस फैसले के साथ ही तय हो गया कि विवादित ज़मीन पर भव्य राम मंदिर बनेगा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को मंदिर से दूर पांच एकड़ जमीन मिलेगी. विपक्ष ने इस फैसले को इकतरफा बताया, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी फैसले पर सवाल उठे, भारत में भी बुद्धिजीवियों ने इस फैसले को पढ़ने के बाद सवाल उठाए, लेकिन विरोध सिर्फ बयानों तक ही सीमित रहा. सुन्नी वक्फ बोर्ड से लेकर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असद्दुदीन ओवैसी तक सिर्फ बयान देते रहे, फैसले से नाखुशी जताते रहे, लेकिन किसी ने भी भड़काऊ बयान देने की कोशिश नहीं की.
वक्फ बोर्ड तो इतने बैकफुट पर था कि उसने रिव्यू पिटिशन तक दाखिल करने से इन्कार कर दिया. हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से रिव्यू पिटिशन दाखिल करने की बात आई, लेकिन विरोध के ये सारे दायरे संवैधानिक थे.
ऐसा इसलिए हुआ कि जैसै ही फैसले की तारीख 9 नवंबर तय हुई, उत्तर प्रदेश के बड़े-बड़े शहर पुलिस छावनी में तब्दील हो गए. लखनऊ से लेकर अयोध्या तक पीएसी और अर्धसैनिक बल तैनात कर दिए गए. केंद्रीय गृहमंत्रालय की ओर से खुद सुरक्षा व्यवस्था की निगरानी की गई और सीआरपीएफ से लेकर आरएएफ तक तैनात कर दी गई. वहीं विवादास्पद और कभी-कभी बेहद भड़काऊ बयान देने वाले बीजेपी के कुछ बड़े नेताओं ने भी फैसले के बाद संयम बरता और अपने बयानों में नरमी रखी. प्रधानमंत्री मोदी के साथ ही गृहमंत्री अमित शाह भी बयान देने से बचते रहे और इस मुद्दे को सिर्फ और सिर्फ कोर्ट के आदेश तक सीमित रखने में कामयाबी हासिल की. सबका साथ, सबका विश्वास की बात करते रहे.
ये मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि थी. क्योंकि नरेंद्र मोदी जिस बीजेपी के नेता हैं, उसी बीजेपी ने पालपुर अधिवेशन में अपने घोषणापत्र में राम मंदिर को सबसे ऊपर रखा था. इस अधिवेशन के ठीक 30 साल के बाद जब पार्टी का संकल्प पूरा हो रहा था, तो उसका अतिउत्साहित होना स्वाभाविक था, सड़क पर उतरकर खुशियां जाहिर करना स्वाभाविक था, संकल्प पूर्ति होने के बाद रथयात्रा निकालना भी अतिशयोक्ति नहीं कहा जाता, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के इशारे पर सब खामोश रहे. सबके जेहन में सिर्फ एक बात रखी गई कि फैसला सर्वोच्च अदालत का है, जिसे मानना इस देश के हर नागरिक का कर्तव्य है. और फिर मोदी-शाह की जोड़ी की इस रणनीति को आम लोगों के बीच वैधता मिलती गई.
जिस राम मंदिर के नाम पर इस देश ने कारसेवकों पर चली गोलियां देखीं, बाबरी का विध्वंस देखा, मुंबई के दंगे देखे, कारसेवा कर लौट रहे कारसेवकों की जली बोगियां देखीं और गोधरा के दंगे देखे, उसी राम मंदिर पर जब फैसला आया, तो पूरे देश के किसी भी हिस्से में एक परिंदा भी पर नहीं मार सका. और इस बदली हुई स्थितियों के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी कैबिनेट की रणनीति से इन्कार नहीं किया जा सकता है.