खून के प्लाज्मा को समझने के लिए ज़रूरी है खून को समझना. खून चार चीजों से मिलकर बनता है. पहला है रेड ब्लड सेल यानि कि लाल रक्त कणिका. दूसरा है वॉइट ब्लड सेल यानि कि श्वेत रक्त कणिका. तीसरा है प्लेट्लेट्स और चौथा है प्लाज्मा. हमारे खून में जो लिक्विड या तरल पदार्थ होता है वही प्लाज्मा होता है. शरीर के पूरे खून का करीब 55 फीसदी हिस्सा प्लाज्मा ही होता है. इस प्लाज्मा में भी करीब 92 फीसदी पानी होता है. करीब 7 फीसदी वाइटल प्रोटीन होते हैं और बते हुए एक फीसदी में मिनरल्स, साल्ट, शुगर, फैट, हार्मोन और विटामिन होते हैं.


प्लाज्मा का सबसे ज़रूरी काम है एंटीबॉडी बनाना, जो आपको किसी भी तरह के संक्रमण से लड़ने में मदद करता है. इसमें एल्बुमिन और फाइब्रिनोजेन नाम के दो प्रोटीन होते हैं, जो संक्रमण से लड़ते हैं. इसके अलावा प्लाज्मा शरीर में ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है, खून के थक्के जमने पर वहां प्रोटीन भेजकर थक्के को खत्म करता है, शरीर की मांसपेशियों को सोडियम और पोटैशियम जैसे साल्ट की सप्लाई करता है.


आपने कई फिल्मों में एक्सिडेंट या बीमारी के कई सीन देखे होंगे. इनमें आम तौर पर एक डायलॉग होता कि डॉक्टर साहूब! हमारे शरीर से खून का एक-एक कतरा निकाल लीजिए लेकिन मेरी मां को बचा लीजिए. ऐसा सिर्फ फिल्मों में ही होता है, क्योंकि ब्लड लेने वाला डॉक्टर एक यूनिट के बाद किसी भी सूरत में आपका खून नहीं ले सकता है. कम से कम तीन महीने के बाद ही आप फिर से ब्लड डोनेट कर सकते हैं और तब भी आप सिर्फ एक यूनिट ब्लड ही दे सकते हैं.


जब हम किसी अस्पताल में किसी के लिए रक्तदान करने जाते हैं तो ब्लड बैंक में डॉक्टर खून लेने से पहले हमारी जांच करता है. ब्लड प्रेशर देखता है, हिमोग्लोबिन देखता है और ये जानने की कोशिश करता है कि पिछले छह महीने के दौरान आपको कोई गंभीर बीमारी तो नहीं हुई है. अगर हर तरफ से आपकी जांच पॉजिटिव आती है तो डॉक्टर आपकी नस में एक मोटी सी निडिल घुसाता है. इसके जरिए खून निकलकर प्लास्टिक के एक स्पेशल पाउच में इकट्ठा होता जाता है. जब पाउच भर जाता है तो डॉक्टर निडिल निकाल लेता है. इसमें महज 15 से 20 मिनट का वक्त लगता है.


लेकिन प्लाज्मा के डोनेशन का तरीका अलग है. इसके लिए डॉक्टर आपके एक हाथ में निडिल लगाता है ताकि ब्लड बाहर आ सके. इस ब्लड को एक स्पेशल मशीन में रखा जाता है. मशीन ब्लड से रेड ब्लड सेल्स और प्लेटलेट्स को एक साथ अलग कर देती और ब्लड के लिक्विड पार्ट यानि कि प्लाज्मा को अलग कर देती है. अलग हुए प्लाज्मा को डॉक्टर इकट्ठा कर लेते हैं, जबकि दूसरी ओर इकट्ठा हुए रेड ब्लड सेल्स और प्लेटलेट्स को सलाइन के जरिए शरीर में वापस ट्रांसफर कर दिया जाता है. इस पूरे प्रोसेस में सामान्य ब्लड डोनेशन की तुलना में थोड़ा ज्यादा वक्त लगता है.


प्लाज्मा निकलने के 24 घंटे के अंदर उसे सुरक्षित करना होता है. ये प्लाज्मा अगले एक साल तक किसी मरीज के इलाज के काम आ सकते हैं. कोरोना के लिए भी फिलहाल इसी प्लाज्मा तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है. जो मरीज कोरोना संक्रमित थे और अब वो ठीक हो चुके हैं, डॉक्टरों को उम्मीद है कि उनके प्लाज्मा में कोरोना के खिलाफ एंटीबॉडी बन गई है. अब डॉक्टर उसी एंटीबॉडी के जरिए कोरोना संक्रमितों का इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं और इसी के लिए दुनिया भर के स्वास्थ्य संगठन कोरोना संक्रमण से ठीक हुए लोगों को प्लाज्मा डोनेट करने की अपील कर रहे हैं.