Chauri-Chaura Incident: चौरी-चौरा कांड हिंदुस्तान की आजादी की जंग का एक ऐसा पड़ाव है जो याद दिलाता है कि दमन और अन्याय का प्रतिरोध हिंसा में भी बदल सकता है. दमनकारी और शोषक ब्रिटिश शासन के खिलाफ चौरी-चौरा का जुलूस एक तरह से किसानों के प्रतिरोध का प्रतिबिंब था. हम आम तौर चौरी-चौरा को ऐसी घटना के तौर पर याद करते हैं, जहां एक अनियंत्रित भीड़ हिंसक हो गई और पुलिस स्टेशन में 23 पुलिसवालों को आग के हवाले कर दिया.
इस अहम ऐतिहासिक घटना में एक बात नामालूम है. वह बात है कि उस वक्त चौरी-चौरा के पुलिस इंस्पेक्टर ने निहत्थे गांववालों पर गोली चलाने के आदेश दिए थे. दुर्भाग्य से, बहुत से लोग नहीं जानते कि ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ शुरुआती दौर में ग्रामीणों का यह विद्रोह शांतिपूर्ण था.
आज आजाद हवा में हम सांस ले पा रहे हैं और देश आजादी की 75 वीं सालगिरह का जश्न मनाने जा रहा हैं तो इस खास दिन तक पहुंचने के सफर में हम और आप उन लोगों के बलिदान को याद करते हैं जो आजादी दिलाने के लिए मिट गए. इस कड़ी में अगर चौरी-चौरा का जिक्र न हो तो आजादी का इतिहास अधूरा सा लगेगा.
चौरी-चौरा जो इतिहास में दर्ज हो गया
चौरी-चौरा और महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन इस कदर एक दूसरे से जुड़े हैं कि एक के बगैर दूसरे का अस्तिव ही अधूरा है. आजादी के सफर में राष्ट्रपति महात्मा गांधी का अहिंसक असहयोग आंदोलन ब्रितानी हुकूमत को खासा परेशान किए हुआ था. साल 1920 में महात्मा गांधी का शुरू किया गया ये पहला जन आंदोलन था.
असहयोग आंदोलन को खिलाफत मुद्दे, रोलट एक्ट, पंजाब के जलियांवाला बाग और इसके बाद हुए भारतीय जनता के उत्पीड़न के खिलाफ न्याय की मांग और स्वराज्य पाने के लिए शुरू किया गया था. इस आंदोलन शुरू करने से पहले महात्मा गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के प्रथम विश्व युद्ध में सहयोग के बदले अंग्रेजों की दी गई केसर ए हिंद की उपाधि को वापस लौटा दिया था. गांधीजी के रास्ते पर चलते हुए कई लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत की दी गई पदवी को वापस कर दिया.
इस आंदोलन को 1 अगस्त 1920 को औपचारिक तौर पर शुरू किया गया था. बाद में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ. इसके बाद कांग्रेस ने इसे अपने औपचारिक आंदोलन की मान्यता दे दी.जो लोग भारत से उपनिवेशवाद को खत्म करना चाहते थे, उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय में न जाएं और न ही अंग्रेजों को कोई टैक्स दें.
मोटे तौर पर कहा जाए तो इस आंदोलन के जरिए ब्रितानी हुकूमत से सारे संबंधों को तोड़ लेने का आह्वान किया गया था. उस वक्त गांधी जी ने कहा था कि यदि असहयोग सही तरीके से किया जाए तो एक साल के अंदर भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो जाएगा. इस आंदोलन को शहरी क्षेत्रों के मध्यम वर्ग और ग्रामीण इलाकों में गांववालों और आदिवासियों का खासा समर्थन मिल रहा था.
जनवरी साल 1921 में कांग्रेस ने चौरी -चौरा में आंदोलन के लिए मंडल का गठन किया. इसके बाद तीन जनवरी 1922 को ही यहां रहने वाले लाल मोहम्मद सांई ने गोरखपुर कांग्रेस खिलाफत कमेटी के हकीम आरिफ को असहयोग आंदोलन का जिम्मा सौंपा. 10 जनवरी 1922 को शारीरिक परीक्षण की जिम्मेदारी रिटायर्ड जवान भगवान अहीर को दी गई. 25 जनवरी 1922 को चौरी-चौरा में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मुंडेरा बाजार के मालिक संत बक्स सिंह के लोगों से नोकझोंक हुई.
जब जुटे मुंडेरा बाजार में जुटे हजारों लोग
इस घटना के बाद 31 जनवरी 1922 भगवान अहीर, नजर अली, लाल मोहम्मद सांई ने कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को संग लेकर मुंडेरा बाजार में एक जनसभा की. इस जनसभा में 4000 से अधिक लोगों ने शिरकत की. इसके बाद चौरी-चौरा कांड के मुख्य खलनायक यानी चौरी-चौरा थाने के इंस्पेक्टर गुप्तेश्वर सिंह ने दो फरवरी 1922 को भगवान अहीर और उनके साथियों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया.
इन सभी के साथ थाने में मारपीट भी की गई. इसके विरोध में चार फरवरी 1922 को ग्रामीण 800 लोगों के साथ मुंडेरा बाजार के पास जुलूस के लिए जुटे. लोगों को यह जानकारी मिली कि गोरखपुर के चौरी-चौरा थाने के इंस्पेक्टर गुप्तेश्वर सिंह ने कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट की है.
इससे गुस्साएं लोगों ने चौरी-चौरा थाना घेर लिया. इसी दौरान इन निहत्थे लोगों पर इंस्पेक्टर गुप्तेश्वर सिंह के आदेश पर पुलिस वालों ने फायरिंग कर दी. इससे भड़क कर भीड ने थाने में आग लगा दी. इस घटना में इंस्पेक्टर गुप्तेश्वर सहित 23 पुलिस वाले जिंदा जल कर मर गए.
गांधी जी ने वापस लिया असहयोग आंदोलन
चौरी-चौरा की घटना से क्षुब्ध होकर महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस लेने का एलान कर दिया और उन्होंने पांच दिनों तक उपवास पर रहने का फैसला किया. इस घटना से गांधी जी को बहुत सदमा लगा था.
12 फ़रवरी 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को खत्म करने पर गांधी जी ने यंग इण्डिया में लिखा था, "आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहां तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ." तब गांधी जी ने चौरी-चौरा पुलिस थाने में मारे गए पुलिसवालों के लिए ये भी कहा, "कोई भी उकसावा उन लोगों की निर्मम हत्या को जायज नहीं ठहरा सकता है."
गांधी जी के विरोध में उठे स्वर
गांधी जी के असहयोग आंदोलन को वापस लेने पर आजादी की लड़ाई में शामिल रहे राष्ट्रीय नेताओं ने उनके इस फैसले पर सवाल उठाए. उस वक्त मोतीलाल नेहरू ने कहा, "यदि कन्याकुमारी के एक गांव ने अहिंसा का पालन नहीं किया गया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गांव को क्यों मिलनी चाहिए." गांधी जी के इस फैसले पर सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, "ठीक उस वक्त जब जनता का उत्साह असहयोग आंदोलन को लेकर चरमोत्कर्ष पर था, इसे वापस लेने का फैसला लेना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं है."
इस आंदोलन को वापस लेने का असर गांधी जी की लोकप्रियता पर भी पड़ा था. 10 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया. न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 साल की कैद की सज़ा दी. हालांकि सेहत संबंधी वजहों से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को ही रिहा कर दिया गया.
कई लोगों को मिली फांसी की सजा
चौरी-चौरा थाने में आगजनी के बाद ब्रितानी पुलिस ने लोगों को गिरफ्तार कर शुरू किया. 9 जनवरी 1923 को 225 लोगों को केस पर चला. गोरखपुर जिला अदालत ने 172 आरोपियों को मौत की सजा सुना डाली. यह बगैर किसी गहन जांच के कलम से एक झटके से किया घोर अन्याय था. बाद में 30 अप्रैल 1923 को कांग्रेस कमेटी की तरफ से मदन मोहन मालवीय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस मामले की पैरवी की थी.
इसके बाद मौत की सजा पाने वाले आरोपियों की संख्या 172 से घटाकर 19 कर दी गई. इसके साथ ही 16 लोगों को काला पानी की सजा दी गई. साल 1923 में ही 2 से 11 जुलाई के दौरान 19 शहीदों को फांसी पर लटका कर ब्रितानिया सरकार ने अन्याय की इंतहा पार कर डाली थी. ब्रितानी सरकार का सरकारी वकील अदालत में कई सवालों के साफ जवाब देने में असमर्थ रहा था. उदाहरण के तौर पर उसके पास इस बात का जवाब नहीं था कि भीड़ अचानक हिंसक कैसे हो गई ?
असहयोग आंदोलन को विफल करने की चाल
चौरी-चौरा के ग्रामीण एक उचित कारण के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और उन्होंने इसके लिए शांतिपूर्ण जुलूस निकाला था जो पूरी तरह से वैध था. ये जुलूस गांधी जी का असहयोग आंदोलन जुलूस का एक हिस्सा था. गांधी जी का आंदोलन अहिंसक था.
चौरी-चौरा के गांववालों ने इसी अहिंसा का पालन किया था, लेकिन हालांकि, ब्रिटिश सरकार खुद के फायदे के लिए यह नहीं चाहती थी कि असहयोग आंदोलन अंजाम तक पहुंचे इसलिए उसने इस अहिंसक आंदोलन को हिंसक बनाने के लिए लोगों को उकसाया.
अंग्रेजों ने बनाया पुलिस स्मारक
आजादी के नायकों भागीरथी, रामजस, अली रज़ा खान, लक्ष्मण, मेघु उर्फ लालबिहारी पुत्र जानकी, मिंधई, दशरथ, अब्दुल्ला उर्फ सुखी, जगलाल,श्यामसुंदर, गज्जी उर्फ गज्जू, कमला को जैसे किसानों को उनके बलिदान का सम्मान 52 साल बाद मिला. जब साल 1973 में गोरखपुर जिले के लोगों ने चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति बनाकर 12.2 मीटर लंबी मीनार बनाई. इससे पहले अंग्रेजों ने साल 1924 में चौरी-चौरा थाने को पुलिस स्मारक के तौर पर नामित किया था.
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