Freedom Struggle Of India 1857: आजादी एक इंसान का बुनियादी हक और हिन्दुस्तानियों के इसी हक पर ब्रितानिया हुकूमत (British Rule) जबरन कुंडली मारकर बैठ गई थी. इसी हक को वापस लेने के लिए मंगल पांडे (Mangal Pandey) जैसे परवाने फड़फड़ाने लगे थे. ये मेरठ से उठी एक ऐसी चिंगारी थी, जिसने पूरे देश को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट कर आजादी की आग को भड़का डाला था.
ये हिन्दुस्तान की आजादी के इतिहास का ऐसा पन्ना है, जो बार-बार पलटा जाना चाहिए. ब्रितानी हुकूमत ने इसे गदर (Mutiny), बगावत जो भी नाम दिया हो, लेकिन 1857 का आजादी का पहला संग्राम ऐसा सबब और सबक है, जो आज भी फक्र के साथ यह कहने को मजबूर करता है कि गंगा-जमुनी तहजीब को मिटाने के लिए जिसने भी सिर उठाया वो नेस्तानाबूद हुआ है.
इस संग्राम में धर्म, जाति से परे होकर सब एक हिन्दुस्तानी बनकर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होकर जी-जान से लड़े. इसी आजादी के लिए आज हम आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) मना रहे हैं और इस कड़ी में हम आपको भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 से रूबरू कराने जा रहे हैं.
गदर-ए-1857
ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ 1857 का विद्रोह कोई मामूली विद्रोह नहीं था. इसमें विद्रोहियों ने अपने एलानों में जाति-धर्म का भेद किए बगैर समाज के सभी तबकों का आह्नान किया. कई एलान मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ से हुए थे, लेकिन ये गौर करने की बात है कि उसमें हिंदूओं की भावनाओं को पूरा ख्याल रखा जाता था. यह ऐसा विद्रोह था जिसे ऐसी जंग के तौर पर पेश किया जा रहा था, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों का नफा-नुकसान बराबर था. ऐसे इश्तिहार निकाले जाते जिसमें अंग्रेजों के आने से पहले हिंदू-मुस्लिमों के गौरवशाली अतीत की तरफ संकेत होता.
मुगल साम्राज्य के तहत अलग-अलग समुदायों के सहअस्तिव की गौरव गाथा की तरफ लोगों का ध्यान दिलाया जाता. दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह के नाम से हुए एलान में मोहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने के लिए कहा गया. इस सबका नतीजा ये हुआ कि अंग्रेजों की हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की कोशिशें धराशायी हो गईं.
ब्रितानिया हुकूमत ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली के हिंदूओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने के लिए 50000 रुपये खर्च किए थे, लेकिन उनकी यह कोशिश पूरी तरह से नाकामयाब रही. भले ही अंग्रेजी हुकूमत ने 1857 के विद्रोह को दबा दिया हो, लेकिन उसके लिए इस विद्रोह को कुचलना लोहे के चने चबाने से कम नहीं रहा.
एक चिंगारी जो आजादी का दावानल बन गई
10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ. यह विद्रोह ब्रितानी हुकूमत के कारतूसों में सूअर और गाय की चर्बी के इस्तेमाल को लेकर हुआ. सैनिकों को इन कारतूसों को इस्तेमाल करने से पहले अपने मुंह से खींचना पड़ता था. इसे लेकर ब्रितानी हुकूमत के सैन्य बेड़े में शामिल भारतीय सैनिकों में विद्रोह की आवाजें उठने लगीं. इन आवाजों को शब्द सैनिक मंगल पांडे ने दिए. दरअसल से ये विद्रोह केवल कारतूसों को लेकर नहीं था.
यह ब्रितानी हुकूमत के हिन्दोस्तान को दबाने की कोशिशों खिलाफ उठ खड़ा हुआ एक संगठित विद्रोह था. अंग्रेजों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को कभी सैनिकों का गदर और बगावत कहा था, तो कभी उन्होंने इसे किसान विद्रोह करार दिया. दरअसल यह पूरी तरह से सुनियोजित विद्रोह था.ये रोटी और कमल के जरिए देश में ब्रितानी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की जंग में देशवासियों को एक होने की कोशिशें थीं, जो रंग ला रहीं थीं.
ईस्ट इंडिया कंपनी के दमनकारी नीतियों का घड़ा भरने लगा था और 19 वीं सदी के पांचवें दशक में हिन्दोंस्तान में गुस्सा उबाल पर था. इसमें राजे-रजवाड़ों के साथ आने से इसे और बल मिला. इसका जिम्मा मराठों ने लिया. ग्वालियर की राजमाता बैजाबाई ने मराठों के एकजुट होने की हुंकार भरी. राजमाता ने बाजीराव पेशवा द्वितीय से संपर्क साधा, लेकिन वहां से कोई उत्तर नहीं मिला. बाजीराव की मौत के बाद नाना साहेब पेशवा ने बैजाबाई से बात की और कई मराठा क्षत्रिय एक-साथ आ गए.
आजादी का सर्वतोभद्र यज्ञ
राजमाता बैजाबाई की सरपरस्ती में 'सर्वतोभद्र यज्ञ' किया गया. इसमें नाना साहब पेशवा के आध्यात्मिक गुरु जस्साबाबा ने अहम भूमिका निभाई. मखाने पीसकर आटे में मिलाकर रोटियां बनाई गई और इस आर्शीवाद के साथ इन रोटियों को बंटवाया गया कि जहां तक ये रोटियां जाएंगी, वहां से ब्रितानी हुकूमत का सूरज अस्त होता चला जाएगा. इसमें साधु-संत, पंडित, मौलवियों को भी जोड़ा गया.
शाह मल और मौलाना अहमदुल्ला शाह 1857 के संग्राम के ऐसे दो विद्रोही हैं, जिन्होंने अनूठे तरीके से लोगों को एकजुट किया. उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगना के जाट परिवार से आने वाले शाह मल ने रातों- रात गुपचुप तरीके से 84 गांवों के मुखियाओं और काश्तकारों से बात की. उन्हें एकजुट किया और खिलाफ़ विद्रोह के लिए तैयार किया. इन लोगों ने दिल्ली में विद्रोह करने वाले सिपाहियों को रसद पहुंचाई तो मेरठ छावनी और ब्रिटिश हेडक्वार्टर के बीच सरकारी संचार पूरी तरह से बंद कर दिया. जुलाई 1857 में शाह मल को जंग में मार दिया गया.
मौलवी अहमदुल्ला शाह अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए गांव-गांव घूमते थे. वह एक पालकी में जाते. उनके आगे- पीछे उनके समर्थक और ढोल वाले चलते थे. इस वजह से वह बाग डंगा शाह कहलाने लगे. इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया, क्योंकि मुसलमान उन्हें पैंगबर की तरह मानते थे.1856 में उनके लखनऊ पहुंचने पर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें लोगों को उपदेश देने से रोक दिया और 1857 में उन्हें फैजाबाद जेल में बंद कर दिया. रिहा होने पर 22 इंफेंट्री के विद्रोहियों ने अपना नेता चुन लिया.
कमल के फूल से दिया क्रांति का संदेश
मौलवी अहमदुल्ला शाह और शाह मल जैसे ही कई लोग थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की छावनियों में हिन्दुस्तानी सैनिकों को देशभक्ति का सबक पढ़ाया. उनसे क्रांति के लिए एकजुट होने का वादा करने को कहा. इस सबके बाद नाना साहब के रणनीतिकार तात्या टोपे ने हर छावनी में कमल के फूल भेजने का अभियान चलाया.
छावनी में भेजे जाने वाले कमल को छह पंखुड़ियां होने की खासियत की वजह से चुना गया. इन पंखुड़ियों के टूटने के बाद डंठलों से हर छावनी से क्रांति में शामिल होने सैनिकों की संख्या का पता लगाया जाता था. कमल बंटने के वक्त सैनिक सब लाल होने की बात कहते, क्योंकि अंग्रेज छावनियों के लिए लाल रंग का इस्तेमाल करते थे. उधर दूसरी तरफ रोटी बांटकर क्रांति का संदेश देने के साथ ही छावनियों से आने वाले सैनिकों के लिए रसद का इंतजाम भी हो गया.
इतिहासकार बताते हैं कि नाना साहब पेशवा के रणनीतिकार तात्या टोपे ने बहुत होशयारी से इसे अंजाम दिया. तभी तो बगैर एडवांस पार्टी के ही मेरठ छावनी से सेना का इतना बड़ा मूवमेंट हो गया. सैन्य इतिहास पर गौर किया जाए तो सेना का मूवमेंट बगैर एडवांस पार्टी के नहीं होता है.
प्लासी की जंग के बाद का बड़ा विद्रोह
प्लासी के युद्ध के एक सौ साल बाद ब्रितानी हुकूमत के अन्याय और दमन का नतीजा 1857 के विद्रोह के तौर पर सामने आया. इसने भारत में ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिला दीं. धीरे-धीरे 10 मई 1857 को मेरठ छावनी से शुरू हुए इस विद्रोह की आग कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध तक फैल गई.
12 और 13 मई को उत्तर भारत में माहौल थोड़ा शांत हुआ तो दिल्ली में विद्रोहियों का कब्जा होने और बादशाह बहादुर शाह के विद्रोह को समर्थन देने से फिर से क्रांति गति पकड़ने लगी. गंगा घाटी की छावनियों और दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह बढ़ने लगा.
आलम यह रहा कि मई-जून के महीनों में अंग्रेंजों के पास विद्रोहियों के खिलाफ कोई जवाब नहीं रहा. अंग्रेज अपनी जिंदगी और परिवार बचाने में फंसे हुए थे. एक तत्कालीन ब्रिटिश अफसर ने लिखा था कि ब्रिटिश साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखर गया.
साल1858 के अंत में विद्रोह के विफल होने पर नाना साहिब भागकर नेपाल चले गए, लेकिन इस किस्से को उनके साहस और बहादुरी से जोड़ा जाता है. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं. दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर को रंगून भेज दिया गया.
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