20 अक्टूबर, 2022, आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना का गवाह रहा है. आज भारत-चीन युद्ध की 60वीं वर्षगांठ है. भारत के शूरवीरों ने 1962 में चीन के साथ सीमा युद्ध में देश के लिए डटकर युद्ध लड़ा. दरअसल, 1962 के चीनी हमले में चीनी सेना संख्या में भारतीय सेना से न सिर्फ़ दोगुनी थी बल्कि उनके पास बेहतर हथियार थे और वो लड़ाई के लिए पूरी तरह से तैयार थे. चीन के पास रसद की भी कोई कमी नहीं थी. चीन का सैन्य नेतृत्व अनुभवी था. चीन की सेना को 10 साल पहले कोरिया में लड़ने का अच्छा अनुभव मिल चुका था. हर मोर्चे पर भारतीय सेना कमतर थी लेकिन मां भारती के जांबाजों ने डटकर चीन की सेना का सामना किया.
इस युद्ध के बाद दिल्ली की विदेश और सुरक्षा नीतियों को लेकर सवाल उठने लगे थे. भारतीय विदेश नीति में 'नेहरूवादी युग' का अंत माना जाने लगा था. चीन के साथ युद्ध के बाद ही अंतर्राष्ट्रीय मंच पर निर्णायक रूप से अधिक बलवान और अधिक यथार्थवादी भारत का उदय हुआ था. इस युद्ध के बाद भारतीय विदेश नीति को एक नया आकार दिया गया. नेहरूवादी युग का अंत हुआ जो आजाद भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों के प्रभुत्व वाला विदेश नीति काल था.
नेहरूवादी विदेश नीति में पांच प्रमुख तत्व थे
भारत की नेहरूवादी विदेश नीति में पांच प्रमुख तत्व थे. पहला, दो शीत युद्ध महाशक्तियों के साथ ऐसा रिश्ता रखना जो न्यूट्रल हो, दूसरा, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से विरासत में मिली नैतिक राजनीति की ओर उनका रुझान, तीसरा-दुनिया में नए स्वतंत्र देशों के बीच भारतीय नेतृत्व की खोज करना, चौथा-प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग को वरीयता देना और पांचवां- वैचारिक और व्यावहारिक कारणों से सुरक्षा और सैन्य शक्ति पर जोर देना..
नेहरूवादी विदेश नीति और चीन के साथ रिश्ता
नेहरूवादी विदेश नीति ने भारत को चीन के साथ एक विशेष सहकारी संबंध की तलाश करने के लिए प्रेरित किया. चीन एक अन्य प्रमुख एशियाई शक्तिशाली देश था जिसका सहयोग करना नैतिक रूप से भारत को सही और व्यावहारिक लगता था.
तीसरी दुनिया के नेतृत्व करने में चीन को भारत एक भागीदार के रूप में देख रहा था. भारत और चीन के रिश्ते बेहद मजबूत हुए और 'हिंदी-चीनी भाई भाई," नेहरू युग के विदेश नीति का स्लोगन बन गया.
1962 का भारत-चीन युद्ध
1962 के भारत-चीन युद्ध ने इस प्रकार की विदेश नीति को भारी झटका दिया. भारत चीन के बीच युद्ध का मुख्य कारण अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों की संप्रभुता को लेकर विवाद था. अक्साई चिन, जिसे भारत लद्दाख का हिस्सा मानता है और चीन शिनजियांग प्रांत का हिस्सा मानता है. यहीं से टकराव शुरू हुआ और यह युद्ध में बदल गया.
चीन के हमले ने यह साबित कर दिया कि नेहरूवादी विदेश नीति भारत की सुरक्षा नहीं कर सकती है और रक्षा और सैन्य शक्ति दिल्ली के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए. इसने साबित किया चीन के हमले के सामने, एक गुटनिरपेक्ष और खराब सशस्त्र भारत न तो अपनी सीमित सैन्य शक्ति पर और न ही सहयोगियों पर भरोसा कर सकता है. इस युद्ध ने साबित किया कि चीन के साथ भारत की साझेदारी एक गलती थी. संकट के वक्त दिल्ली का नैतिक-राजनीतिक और तीसरा विश्ववाद का कॉन्सेप्ट झूठा साबित हुआ.
इस पूरे क्रूर अनुभव ने प्रदर्शित किया कि भारत को अधिक शक्तिशाली और अधिक स्पष्ट रूप से यथार्थवादी विदेश नीति की आवश्यकता थी. हालांकि इस तरह की विदेश नीति ने नेहरू के सत्ता में पिछले दो वर्षों के दौरान आकार लेना शुरू कर दिया था, लेकिन 1964 में नेहरू के निधन के कई वर्षों के बाद पूरी तरह से यह नीति भारत ने अपनाया.
इस युद्ध ने भारत की विदेश-सुरक्षा नीति में कई प्रमुख बदलाव किए
पहला बदलाव- नेहरूवादी काल को समाप्त करने के अलावा, इस युद्ध ने भारत की विदेश और सुरक्षा नीति में तीन प्रमुख दीर्घकालिक परिवर्तनों को प्रेरित किया. सबसे पहले, युद्ध ने नई दिल्ली को अपनी सेना पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया और इस तरह एक प्रमुख सैन्य शक्ति के रूप में भारत का उदय हुआ.
युद्ध के बाद भारत का रक्षा खर्च बड़े पैमाने पर बढ़ गया, 1961 में यह सकल घरेलू उत्पाद के 2.1 प्रतिशत से बढ़कर 1963 में 4 प्रतिशत हो गया, और शेष शीत युद्ध में जीडीपी के 3 प्रतिशत से लगातार ऊपर रहा. यह 1962 से पहले के स्तर पर कभी नहीं लौटा.
दूसरा बदलाव-इसके अलावा 1962 के युद्ध ने प्रमुख सैन्य सुधारों के लिए भी देश को प्रेरित किया और भारत के रक्षा उद्योग को फिर से आकार देने और विस्तार करने के लिए बड़े पैमाने पर भूमिका निभाई. इस युद्ध ने 1974 में परमाणु परीक्षण करने और 1998 में परमाणु हथियार हासिल करने के भारत के फैसले में एक अहम भूमिका निभाई.
तीसरा बदलाव-1962 के युद्ध ने भारत को विदेश नीति में अधिक वास्तविक राजनीतिक संबंधों के लिए प्रेरित किया. विदेश नीति में यह बदलाव युद्ध के दौरान ही हुआ, जब अक्टूबर और नवंबर 1962 में चीनी हमले के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हथियारों के लिए यू.एस. और यूके से मदद मांगी. इसके साथ ही उन्होंने इस युद्ध में अमेरिकी वायु सेना को हस्तक्षेप करने के लिए भी कहा.
हालांकि, भारतीय विदेश नीति में अधिक वास्तविक राजनीति की सही तरीके से शुरुआत इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुई. इंदिरा गांधी की विदेश नीति बहुत अधिक शक्ति-उन्मुख और ठोस थी. उनके प्रधानमंत्री रहते हुए, भारत ने 1971 में सोवियत संघ के साथ भागीदारी की और पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ बांग्लादेश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इंदिरा गांधी के कार्यकाल से ही भारत की विदेश नीति आमतौर पर एक वास्तविक राजनीतिक दिशा में बढ़ती गई.
चौथा बदलाव- 1962 के युद्ध ने नई दिल्ली को चीन को एक संभावित सुरक्षा खतरे के रूप में स्थायी रूप से फिर से परिभाषित करने के लिए प्रेरित किया. 1988 में बीजिंग और दिल्ली द्वारा अपने संबंधों को फिर से शुरू करने और 1993 और 1996 में प्रमुख रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद भी, भारत ने चीन को एक प्रमुख, संभावित सुरक्षा खतरे के रूप में पहचानना जारी रखा है.
चीन के बारे में भारत की लगातार सुरक्षा चिंताओं को तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया था. उन्होंने 1998 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक गुप्त पत्र में चीन की ओर इशारा करते हुए भारत के परमाणु हथियारों के अधिग्रहण को उचित ठहराया था.
संक्षेप में कहें तो, 1962 का युद्ध भारत की विदेश और सुरक्षा नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके परिणाम आज भी महसूस किए जाते हैं. आज भारत दुनिया की सबसे शक्तिशाली देशों में है. आज देश की सेना के पास मौजूद हथियार न आधुनिक हैं. दुश्मनों के दांत खट्टे करने का जज्बा पहले से कई गुना अधिक है.