तंजो-मिजाह शायरी की बात जब आती है तो ज़ेहन में एक नाम जो आता है वो है मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी का नाम. तंजो-मिजाह में उनका मुकाम सरे-फेहरिस्त है.  शायरी के सभी पुराने मिथक को तोड़ते हुए अकबर ने उसे मेहबूबा के जुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म की तारीफ में खर्च नहीं किए. न उन्होंने शराबों-शबाब और राजाओं की जी-हुजूरी में शेर लिखे. अकबर ऐसे शायर हुए जिन्होंने अपनी शायरी में समाजिक बुराई से लेकर राजनीतिक चालाकियों तक पर जबरदस्त तंज कसा. अब आप कहेंगे आज अकबर इलाहाबादी का जिक्र हम क्यों कर रहे हैं? तो बता दें कि जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ईरान हो या भारत या फिर अफगानिस्तान समेत दुनिया के दूसरे मुल्क़, इस वक्त हर जगह एक मुद्दा छाया हुआ है और वो मुद्दा है हिज़ाब को लेकर है. 


इन तमाम मुल्क़ों के अधिकतर मर्द जो महिलाओं के पर्दे में रहने के पक्ष में मजबूती से तर्क देते नजर आते हैं उनके पास कहने को इसके अलावा कुछ नहीं कि पर्दा गलत निगाह से बचने का जरिया है...मतलब...बीमारी गलत निगाह है लेकिन रूढ़िवादी समाज उसका इलाज करने की जगह औरत को पर्दे में रखने को बेहतर समझता है.


ऐसी ही बातों तो सुनकर अकबर इलाहाबादी की पंक्तियां याद आ जाती है जो उन्होंने इस पर्दा प्रथा के पक्षधर मर्दों पर तंज कसते हुए लिखी थी..


बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियां
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो मैं ने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया


सवाल यही है कि रसोई और बिस्तर के गणित से परे एक स्त्री के बारे में पूरी दुनिया का पितृसत्तात्मकत समाज क्यों नहीं सोचता. क्यों ईरान से लेकर भारत तक पर्दा के पक्षधर मर्दों की सोच एक जैसी लगती है. क्यों स्त्री दमन देश, समाज, काल और समय के परे दिखाई देता है.


अमिनी का एकमात्र अपराध हिजाब को 'ठीक से नहीं पहनना'


नॉर्वे स्थित ईरान ह्यूमन राइट्स (IHR ने रविवार को कहा कि ईरान की मोरल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए महसा अमिनी की मौत के बाद भड़के हिंसा में कम से कम 92 लोग अब तक मारे गए हैं.


बता दें कि अमिनी का एकमात्र अपराध हिजाब को ठीक से नहीं पहनना था. इस 'अपराध' के लिए ईरान की मोरल पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया और एक वैन में बेरहमी से पीटा, जिसके बाद वह कोमा में चली गई, बाद में उनकी मृत्यु हो गई. हालांकि, पुलिस और सरकार ने उसके खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा के दावों से इनकार किया है.


यह पहली बार नहीं है जब ईरान में किसी महिला के साथ ठीक से हिजाब न पहनने पर मारपीट की गई हो. ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं. ईरान में महिलाएं इन क्रूरताओं का विरोध अक्सर करती रही हैं.


अप्रैल 2018 में, एक महिला, जिसने अपने हिजाब को 'गलत तरीके से' बांधा था, उसको तेहरान में एक महिला मोरल पुलिस अधिकारी द्वारा सार्वजनिक रूप से पीटा गया था. इस घटना को सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से साझा किया गया. इस घटना की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हुई.


ईरान में हिजाब पहनना कब अनिवार्य कर दिया गया था?


बता दें कि 1979 में ईरानी क्रांति (जिसे इस्लामिक क्रांति के रूप में भी जाना जाता है) के बाद, महिलाओं के लिए शरिया द्वारा निर्धारित कपड़े पहनने के लिए एक कानून पारित किया गया था. इस कानून के बाद महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य हो गया, साथ ही सिर पर स्कार्फ या हिजाब पहनना अनिवार्य हो गया. हालांकि इस्लामी क्रांति से पहले, रज़ा शल पहलवी के शासन में ईरान में कई सामाजिक सुधार हुए थे जिन्होंने महिलाओं को काफी स्वतंत्रता दी थी.


ईरान में इस्लामी क्रांति से पहले की तस्वीरें और वीडियो में महिलाओं को स्वतंत्र रूप से कपड़े पहनने का चित्रण मिलता है जबकि आजकल के वास्तविक दृश्य पूरी तरह से विपरीत हैं. आइए हम उन परिवर्तनों पर प्रकाश डालते हैं जो समय के साथ उनके जीवन में आए और कैसे उन्हें इस्लामी परंपराओं के अनुसार कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया गया....


रजा शाह पहलवी और ईरान का आधुनिकीकरण


19वीं सदी के अंत में ईरानी समाज पर जमींदारों, व्यापारियों, बुद्धिजीवियों और शिया मौलवियों का महत्वपूर्ण प्रभाव था. वे सभी संवैधानिक क्रांति में एक साथ आए लेकिन काजर राजवंश के शासन को उखाड़ फेंकने में विफल रहे. बता दें कि काजर राजवंश, 1794 से 1925 तक ईरान का शासक वंश रहा.


हालांकि,  जमींदारों, व्यापारियों, बुद्धिजीवियों और शिया मौलवियों के इस क्रांति के कारण कुलीन फारसी कोसैक ब्रिगेड (पहलवी राजवंश के संस्थापक) के कमांडर जनरल रजा खान का उदय हुआ. 1925 में, यूनाइटेड किंगडम की मदद से, वह सत्ता में आए और एक संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की.


रजा शाह यूके और यूएसए से काफी प्रभावित थे. ईरान में शासन करने के वर्षों बाद, उन्होंने कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की शुरुआत की. उन्होंने इस्लामी कानूनों को आधुनिक समय के पश्चिमी कानूनों से बदल दिया. उन्होंने उचित मानवाधिकार और एक प्रभावी लोकतंत्र की स्थापना के लिए भी आवाज उठाई.


उन्होंने महिलाओं के चेहरे को हिजाब या बुर्का से ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया. रजा शाह इन सुधारों के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि 1936 में उन्होंने कशफ-ए-हिजाब लागू किया. यानी अगर कोई महिला हिजाब पहनती है तो उसे हटाने का अधिकार पुलिस के पास है. इस सभी सुधारों के पीछे, उनका प्रमुख उद्देश्य समाज में रूढ़िवादियों के प्रभाव को कमजोर करना था.


मोहम्मद रजा शाह पहलवी और श्वेत क्रांति


मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी रज़ा शाह के पुत्र थे. 1941 में उन्होंने गद्दी संभाली. वे भी अपने पिता की तरह पश्चिमी संस्कृति से काफी प्रभावित थे. उन्होंने महिलाओं के लिए समान अधिकारों का समर्थन किया और उनकी स्थिति में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए. उन्होंने महिलाओं को उनकी इच्छा के अनुसार कपड़े पहनने की अनुमति दी.


देश के आधुनिकीकरण के लिए, उन्होंने 1963 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार देते हुए 'श्वेत क्रांति' की शुरुआत की, जिसके परिणामस्वरूप महिलाएं भी संसद के लिए चुनी गईं.


इसके अलावा 1967 में ईरान के पर्सनल लॉ में भी सुधार किया गया जिसमें महिलाओं को समान अधिकार मिले. लड़कियों की शादी की उम्र भी 13 से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई और गर्भपात को भी कानूनी बना दिया गया. लड़कियों की पढ़ाई में भागीदारी बढ़ाने पर जोर दिया गया. 1970 के दशक तक, ईरान के विश्वविद्यालयों में लड़कियों की हिस्सेदारी 30% थी. हालांकि यह क्रांति 1978 में समाप्त हो गई.


रूढ़िवादी और इस्लामी कानून का उदय


शिया धर्मगुरु अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी ने मोहम्मद रज़ा शाह की इन नीतियों का विरोध किया. वह 1963 में श्वेत क्रांति के विरोध में एक प्रमुख चेहरा बन गए. उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया और 15 साल के लिए निर्वासन में भेज दिया गया. इस दौरान खुमैनी ने किताबों और कैसेट के माध्यम से इस्लामी गणराज्य, शरिया कानून और इस्लामी सरकार के विचार का प्रचार किया.


1978 में, उनके नेतृत्व में, शाह के विरोध में दो मिलियन लोग तेहरान के शहीद चौक पर एकत्र हुए. दिलचस्प बात यह है कि बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी इस क्रांति में सक्रिय भाग लिया.


1979 में, फांसी के डर से, शाह रजा पहलवी देश छोड़कर भाग गए और ईरान इस्लामिक गणराज्य बन गया. खुमैनी को ईरान का सर्वोच्च नेता बनाया गया और देश इस्लामी दुनिया में शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया. खुमैनी शासन की शुरुआत में महिलाओं के अधिकारों को खत्म कर दिया गया.


हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया


साल 1981 में, कॉस्मेटिक उत्पादों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया और हिजाब पहनना अनिवार्य हो गया. धार्मिक पुलिस ने रेजर ब्लेड से महिलाओं की लिपस्टिक हटाना शुरू किया. इस्लामिक सरकार ने 1967 के परिवार संरक्षण कानून के सुधारों को समाप्त कर दिया और लड़कियों की शादी की उम्र 18 साल से घटाकर 9 साल कर दी.


क्या है ईरान की मॉरेलिटी पुलिस ?


ईरान में मॉरेलिटी पुलिस का अपना एक इतिहास है. इसे वहां गश्ते-ए-इरशाद कहा जाता है. गश्ते-ए-इरशाद का मतलब होता है- सार्वजनिक जगहों पर इस्लामिक कानूनों के तहत पहनावे का पालन कराना. इसका मतलब है कि गश्ते-ए-इरशाद का काम प्रॉपर ड्रेस कोड और उनसे जुड़े नियमों का पालन करवाना है. गश्त-ए-इरशाद को ईरान सरकार का ही हिस्सा कहा जाता है. 


हिजाब हर मायने में स्त्रीविरोधी परंपरा तो एकजुट आवाज क्यों नहीं उठती


हाल ही में भारत के कर्नाटक की लड़कियों के हिजाब पहनने के पक्ष में जब उदारवादियों-नारीवादियों ने दलीलें दीं तो समानता में विश्वास रखने वालों के मन में एक सवाल उठा कि क्या हिजाब या किसी भी तरह की पर्दा प्रथा को पूरी दुनिया में मानव-विरोधी और स्त्रीविरोधी परम्परा का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए? क्या इस भेदभाव के खिलाफ एकजुट होकर आवाज नहीं उठानी चाहिए.


अब जब ईरान में हिजाब को लेकर सड़कों पर महिलाओं ने मर्दवादी सत्ता, सोच और कट्टर धार्मिक कानून को चुनौती दी है तो किसी का भी मन खुश हो गया होगा. अगर पूरी दुनिया में इसी तरह से इस्लाम के भीतर से ही विद्रोह की आवाज़ें उठें तो बेड़ियां टूटने में क्या देर लगेगी. 


आज ईरान का परिदृश्य देखकर लगता है मशहूर शायर मजाज़ की ये पंक्तियां ईरान की महिलाओं ने सच कर दिखाया है. उन्होंने 'आंचल को परचम' बना लिया है और मर्दवादी समाज में अपने हक़ की आवाज बुलंद करने लगी हैं.


तेरे माथे पे ये आंचल, बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था