क्या यरूशलम इजराइल की राजधानी है, आखिर क्या है इसका पूरा विवाद?
यरूशलम फिर से चर्चा में है.अब ऑस्ट्रेलिया ने पश्चिमी यरूशलम को इजराइली राजधानी की मान्यता देने वाले फैसले को रद्द कर दिया है. ये फैसला इस देश के पूर्व पीएम स्कॉट मॉरिसन ने 2018 में लिया था.
यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों का पवित्र स्थल यरूशलम हमेशा से ही विवादों में रहा है. अब फिर से यरूशलम को लेकर ऑस्ट्रेलिया का एक फैसला विश्व में चर्चा का विषय बना हुआ है. दरअसल अमेरिका के बाद ऑस्ट्रेलिया ने साल 2018 में पश्चिम यरुशलम को इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी.
ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने अमेरिका के कदमों पर चलते हुए ये कदम उठाया था. हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री मॉरिसन की बात को अनदेखा करते हुए ऑस्ट्रेलिया ने चुपचाप पश्चिम यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के इस फैसले को रद्द कर दिया है. ऑस्ट्रेलिया की लेबर पार्टी की सरकार ने पश्चिमी यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के रूप में मान्यता देने वाले दो वाक्य ऑस्ट्रेलिया विदेश मामलों और व्यापार विभाग (DFAT) की वेबसाइट से हटा दिए हैं.
यरूशलम एक नजर में
यरूशलम एक ऐसी जगह है जो बेहद पाक होने के बाद भी हमेशा विवादों में रही है. इसकी वजह भी इसे पाक मानने वाले इजराइली और फ़लस्तीनी ही हैं. पैगंबर इब्राहीम को खुद का मसीहा मानने वाले 3 मजहबों इस्लाम, यहूदी और ईसाईयों के लिए ये शहर बहुत खास है.
दुनिया के बेहद पुराने शहरों में गिने जाना वाला ये शहर कई बार बना-बिगड़ा, लेकिन इसका इतिहास इससे कभी जुदा नहीं हुआ. इस शहर की वजह से इन मजहबों के लोगों के बीच संघर्ष हुआ तो इसी ने उन्हें जोड़ा भी है.
इस शहर के बीचों बीच एक पुराना जिसो ओल्ड सिटी है. यहां ईसाई, इस्लामी, यहूदी और अर्मेनियाईं लोगों के चार इलाके हैं. इस सिटी को घेरती हुई किले जैसी एक दीवार है. इसी दीवार के करीब पाक जगहें हैं, जहां इन लोगों का अपना-अपना आधिपत्य साबित करने का विवाद लंबे वक्त से चला आ रहा है.
पवित्र स्थल हैं यहां
यरूशल में सबसे अहमियत वाले जिसो ओल्ड सिटी में ईसाई, इस्लामी, यहूदी और अर्मेनियाईं बसते हैं. यहां सबसे पुराना इलाका अर्मेनियाइयों का है. जो सेंट जेंम्स चर्च और मोनेस्ट्री में इस समुदाय की विरासत को समेटे हुए है. अर्मेनियाइयों को भी ईसाई ही माना जाता है.
इस हिसाब से देखा जाए तो यहां इस धर्म को मानने वालों के दो इलाके हैं. ईसाई इलाके में द चर्च आफ द होली सेपल्कर है. इसी जगह पर ईसा मसीह को हिल ऑफ द केलवेरी पर क्रॉस पर चढ़ाया गया और यहीं वो दोबारा से जीवित हुए.
मुस्लिम इलाके में डोम ऑफ द रॉक और मस्जिद अल अक्स है. मुसलमानों की पाक माने जाने वाली जगह हरम अल शरीफ भी यहीं है. मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर मोहम्मद एक रात में ही मक्का से यहां पहुंचे थे और उन्होंने इसी जगह से जन्नत का सफर किया था. वहीं यहूदी इलाके में वॉल ऑफ दा माउंट का बचा हिस्सा कोटेल यानी पश्चिमी दीवार है.
मान्यता है कि यहूदियों की सबसे पाक जगह द होली ऑफ द होलीज भी यहीं पर है. यहूदी मानते हैं कि इसी जगह से दुनिया बनी है. यहीं पर पैगंबर इब्राहिम ने अपने बेटे इश्हाक की कुर्बानी की तैयारी की थी. द होली ऑफ द होलीज की इबादत के लिए सबसे करीबी जगह पश्चिमी दीवार ही है.
क्यों है विवाद इस शहर पर
ये सबसे पुराना शहर यरूशलम ही फलस्तीनी और इजराइलियों के बीच झगड़े की असल वजह है. धार्मिक नजरिए से ही नहीं बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इस शहर की खासी अहमियत है. साल 1948 में इजराइल बना था. तब इस देश की संसद को इस शहर के पश्चिमी हिस्से में जगह दी गई थी.
इजराइल के अधिकतर लोग यरूशलम को अपनी राजधानी मानते हैं. साल 1967 में इजराइल और अरब देशों के बीच जंग हुई थी. इस जंग में इजराइल के पूर्वी यरूशलम पर कब्जे से ये पुराना शहर 'जिसो ओल्ड सिटी' भी इसकी जद में आ गया.फिर क्या था इजराइल ने इस इलाके को भी कब्जा लिया.
हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इजराइल के इस कब्जे को अब तक मान्यता नहीं दी. दरअसल फलस्तीनी कुनबे यहां सदियों से रह रहे हैं और इस शहर की एक तिहाई आबादी भी इन्हीं लोगों की है.
फ़लस्तीनी इस पर अलग राय रखते हैं. ये लोग पूर्वी यरूशलम को भविष्य के फ़लस्तीनी देश की राजधानी बनाना चाहते है. उधर इजराइल के पूर्वी यरूशलम में कब्जे के बाद से ही यहूदी बस्तियां बढ़ती जा रही हैं. अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ये अवैध हैं, लेकिन इजराइल हमेशा इससे इंकार करता रहा है यही असली विवाद की जड़ है.
अमन का प्रस्ताव ही कारगर
दशकों से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का मानना है कि तीन मजहबों के पाक शहर यरूशलम के हालातों में बदलाव लाने का इकलौता कारगर उपाय शांति प्रस्ताव है और इसके लिए इजराइली और फ़लस्तीनी दोनों ही की बात को अमल में लाया जाना चाहिए.
इसी वजह से दुनिया के सभी देश जिनके इजराइल में दूतावास है वो सब तेल अवीव में ही हैं. तेल अवीव इजराइल का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है. मतलब ये देश यरूशलम को इजराइल की राजधानी नहीं मानते. इन देशों के यरूशलम में केवल वाणिज्यिक (Consulate) दूतावास हैं.
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इजराइल और फ़लस्तीनी दो राष्ट्रों वाले समाधान से सहमत नहीं थे. इसी वजह से उन्होंने यरूशलम को इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी और तेल अवीव से अमेरिकी दूतावास को यरूशलम स्थानांतरित कर डाला.
ट्रंप का कहना था कि वो एक ऐसे राष्ट्र के हिमायती हैं जिसमें दोनों पक्ष सहमत हों. तब इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि अमेरिका के अलावा दुनिया के अन्य देश भी अपना दूतावास यरूशलम ले जाने की सोच रखते हैं.
दो-राष्ट्र समाधान क्या है?
इजराइल-फलस्तीनी संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत समाधान को दो-राष्ट्र समाधान कहा जाता है. इसके तहत इज़राइल के साथ-साथ आजाद फलस्तीनी राष्ट्र के सह-अस्तित्व को भी स्वीकारा गया है. इसके पीछे 1967 से पहले की सीमाओं पर इजराइल के संग एक आजाद फ़लस्तीनी राष्ट्र बनाने की सोच है.
लंबे वक्त से चले आ रहे इजराइल फलस्तीनी विवाद में अमन कायम करने का यही इकलौता तरीका भी है. संयुक्त राष्ट्र ने भी इस मामले में दो-राष्ट्र समाधान को अपने प्रस्तावों शामिल किया है.
दरअसल अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कभी भी यरूशलम पर इजराइल की पूर्ण संप्रभुता को स्वीकार नहीं किया है. इजराइली इससे नाखुशी जाहिर करते हैं. तो उधर दूसरी तरफ फलस्तीनीी पूर्वी यरूशलम पर राजधानी का अपना दावा ठोकते हैं.
ये आगे की कहानी
साल 2017 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय नियमों की अनदेखी करते हुए पश्चिमी यरूशलम को इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी. वो ऐसा करने वाले पहले वैश्विक नेता बने थे. दरअसल अमेरिका का एक बड़ा हिस्सा यरूशलम पर इजराइल के हक का पक्षधर है.
यही वजह रही कि उस वक्त राष्ट्रपति रहे ट्रंप ने यरूशलम दूतावास अधिनियम 1995 के तहत फैसला लेते हुए अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम स्थानांतरित कर दिया. ये कानून अमेरिका के इजराइली दूतावास के यरूशलम में होने की बात को पुख्ता करता है. ये अधिनियम कानूनी तौर पर तेल अवीव से अमेरिकी दूतावास को यरूशलम ले जाने के लिए बाध्य करता था.
हालांकि इसका एक भाग अमेरिकी राष्ट्रपति को राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को ध्यान में रखते हुए इस कदम को 6 महीने के लिए रोकने की मंजूरी भी देता है. अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर बिल क्लिंटन, जॉर्ज डब्ल्यू बुश और बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के दौरान हर बार 6 महीने वाले इसी भाग पर अमल किया था.
जब ऑस्ट्रेलिया चला अमेरिका के पीछे
अमेरिका की देखादेखी ऑस्ट्रेलिया के लिबरल या कंजर्वेटिव पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने दिसंबर 2018 में पश्चिमी यरूशलम को इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी. हालांकि ऑस्ट्रेलिया का दूतावास तेल अवीव में ही रहा. अब ऑस्ट्रेलिया की लेबर सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के इस फैसले को रद्द कर दिया है.
ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वोंग ने मंगलवार 18 अक्टूबर को इस फैसले को रद्द करने का आधिकारिक एलान किया है. ऑस्ट्रेलिया ने पश्चिमी यरूशलम की इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता रद्द कर दी है. दरअसल इज़राइल पूरे और संयुक्त यरूशलम को अपनी राजधानी मानता है. जबकि फ़लस्तीनी अधिकारियों का विचार है कि पूर्वी यरूशलम भविष्य में बनने जा रहे फ़लस्तीन देश की राजधानी होना चाहिए.
ऑस्ट्रेलिया ने क्यों पलटा फैसला?
ऑस्ट्रेलिया के विदेश मामलों और व्यापार विभाग ने द्विपक्षीय स्थिति को बरकरार रखा है. ऑस्ट्रेलिया ने कहा कि वह यरूशलम के मामले में एक दो-देशों वाले समाधान के लिए प्रतिबद्ध है. इस समाधान के तहत शांति और सुरक्षा के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सीमाओं के अंदर दो देशों के सह-अस्तित्व को भी स्वीकारा गया है. इसमें एक देश इजराइल हो तो दूसरा देश भविष्य का फलस्तीनी देश है.
इस पर ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रालय ने साफ कहा कि वह ऐसे नजरिए का समर्थन नहीं करेगा जो दो राष्ट्रों वाले समाधान की संभावना को कम करता हो. विदेश मंत्रालय ने इजराइल और फलस्तीन दोनों को अपने समर्थन की गारंटी भी दी. मंत्रालय ने कहा, “हम लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री बेन चिफ्ली के तहत इज़राइल को औपचारिक रूप से मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक रहे थे."
यह सरकार ऑस्ट्रेलिया में इजराइल और यहूदी समुदाय के समर्थन में पीछे नहीं हटेगी. हम फलस्तीनी लोगों के समान रूप से अटूट समर्थक हैं. 1951 से हर साल हम उन्हें मानवीय मदद दे रहे हैं और शांति वार्ता फिर से शुरू करने की वकालत कर रहे हैं.” जबकि इजराइल के प्रधानमंत्री यायर लैपिड ने ऑस्ट्रेलिया के इस कदम की आलोचना की. इस पर प्रधानमंत्री लैपिड ने कहा, "हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार अन्य मामलों को अधिक संजीदगी और पेशेवर तरीके से ले."
वहीं फ़लस्तीनी प्राधिकरण के नागरिक मामलों के मंत्री हुसैन अल-शेख ने ऑस्ट्रेलिया के इस कदम की तारीफ की था. उनका कहना था कि ये इस बात को पुख्ता करता है कि यरूशलम के स्थिति का समाधान आखिरी दौर की बातचीत पर निर्भर करता है.
ऑस्ट्रेलियाई नीति में बदलाव
इस साल मई 2022 में लेबर पार्टी के एंथनी अल्बनीज़ को ऑस्ट्रेलिया का प्रधानमंत्री चुना गया था. उनका चुना जाना इस देश में लंबे वक्त के बाद बदलाव की एक लहर था. दरअसल लेबर पार्टी ने लगभग एक दशक तक इस देश की सत्ता पर काबिज कंज़र्वेटिव पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को हराया था.
इसी गठबंधन ने 2018 में पश्चिमी यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी. तब तत्कालीन पीएम मॉरिसन ने कहा था कि दूतावास को तेल अवीव से आखिरी दृढ़ फैसला लेने के बाद जब भी व्यावहारिक हो तब यरूशलम स्थानांतरित किया जाएगा. उन्होंने कुछ वक्त के लिए पश्चिमी यरूशलम में रक्षा और व्यापार ऑफिस खोलने का एलान भी किया था.
तब मॉरिसन ने यह भी कहा था कि उनकी सरकार दो-राज्य समाधान के लिए प्रतिबद्ध है. तब उन्होंने कहा था कि वो फलस्तीनी लोगों की पूर्वी यरूशलम को भविष्य की राजधानी बनाने की इच्छाओं का भी सम्मान करते हैं. गौरतलब है कि इजराइल और फलस्तीनी दोनों ही यरूशलम पर अपनी राजधानी होने का दावा करते हैं.
इंडोनेशिया कैसे शामिल है?
इंडोनेशिया दुनिया का सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला और ऑस्ट्रेलिया का नजदीकी पड़ोसी देश है. अक्टूबर 2018 में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व पीएम मॉरिसन के पश्चिमी यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के एलान ने इंडोनेशिया को नाराज कर दिया.
इसकी वजह से दोनों देशों के बीच तनाव हो गया था और इंडोनेशिया की राजधानी जर्काता में इसका विरोध होने लगा था. तब ऑस्ट्रेलिया ने अपने नागरिकों को राजधानी जकार्ता और बाली सहित छुट्टियों वाले मशहूर हॉटस्पॉट में बेहद सावधानी बरतने की चेतावनी दी थी. ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी यरूशलम के इजराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता रद्द करने के कदम का अब इंडोनेशिया ने स्वागत किया है.
पश्चिमी यरूशलम और राजधानी का मसला
यरूशलम की जगह अभी भी अधिकतर देशों के दूतावास तेल अवीव में ही हैं. गौरतलब है कि साल 1980 से पहले अधिकांश देशों के दूतावास यरूशलम में ही थे. यरूशलम से तेल अवीव में दूतावासों को ले जाने का ये सिलसिला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 478 के बाद शुरू हुआ था.
यूएन सुरक्षा परिषद ने इस प्रस्ताव में देशों से उनके राजनयिक मिशनों को यरूशलम से बाहर ले जाने का अनुरोध किया था. दुनिया के 10 देशों बोलीविया, कोलंबिया, कोस्टा रिका, डोमिनिकन गणराज्य, अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती, नीदरलैंड, पनामा और उरुग्वे ने इस अनुरोध को मानते हुए अपने दूतावास यरूशलम से हटा लिए थे. जबकि चिली, इक्वाडोर और वेनेजुएला ने इस प्रस्ताव के आने से पहले ही अपने मिशन यहां से वापस ले लिए थे.
साल 2006 में कोस्टा रिका और अल सल्वाडोर अपने दूतावासों को यरूशलम से बाहर स्थानांतरित करने वाले आखिरी देश थे. दिसंबर 2017 में ट्रंप ने पश्चिमी यरूशलम को इज़राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने और अमेरिकी दूतावास को यरूशलम ले जाने का एलान किया था. इसके बाद मई 2018 में यरूशलम में अमेरिकी दूतावास खोला गया था.
किस-किस देश के दूतावास हैं यहां
अमेरिका के यरूशलम में दूतावास खोलने के दो दिन बाद ही ग्वाटेमाला ने अपना दूतावास यहां खोला. इसके बाद पराग्वे ने भी कहा था कि वो अपने दूतावास को यरूशलम ले जाएगा, लेकिन केवल तीन महीनों के अंदर ही इस देश का ये फैसला वहां नई सरकार के बनने से टल गया.
बीते साल ही जून 2021 में होंडुरास ने यरूशलम में अपने दूतावास का उद्घाटन किया. हालांकि, एक साल बाद ही इस, देश के विदेश मंत्रालय ने कहा कि वह दूतावास को वापस तेल अवीव ले जाने पर सोच रहा है.
मार्च 2021 में कोसोवो ने यरूशलम में एक दूतावास खोला. सूरीनाम ने मई 2022 में एलान किया है कि वह भी यहां एक दूतावास खोलने जा रहा है. हालांकि इसे लेकर सूरीनाम ने अभी कोई तारीख तय नहीं की है.
सितंबर 2022 में ब्रिटिश मीडिया आउटलेट्स ने कहा था कि 20 अक्टूबर 2022 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने वाली लिज़ ट्रस भी देश के दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम ले जाने की सोच रहीं थीं. न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान ट्रस ने इजराइल के प्रधानमंत्री यायर लैपिड के साथ इस पर बात भी की थी.
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