Kabootarbazi Where It Came From: कबूतरबाजी (Kabootarbazi) इस लफ्ज को लेकर आपके दिमाग में भी सवाल जरूर कौंध रहे होंगे. हम भी मानते हैं कि ये सवाल ऐसे ही आपके दिमाग में नहीं आ रहें, क्योंकि जब कबूतरबाजी के आरोप में "हो जाएगी तेरे बल्ले-बल्ले" वाले दलेर मेंहदी (Daler Mehndi) अदालतों में कूद-फांद के लिए मजबूर हो जाएं तो लाजिमी है कि आप भी जरूर जानना चाहेंगे कि ये लफ्ज आखिर कहां से आया. हालांकि आज जिस नकारात्मक तौर पर इस लफ्ज का इस्तेमाल हो रहा है, उस तरह से इसकी यौमे-ए- पैदाइश नहीं हुई थी. आज यहां हम "कबूतरबाजी" के इसी सफर के बारे में बात करने जा रहे हैं.


कबूतरबाजी मुगल शासकों का पसंदीदा शगल


मिस्र (Egypt) में लगभग 3000 साल पहले कबूतर (Pigeon) पालने को कबूतरबाज़ी कहा जाता था. मुगल काल (Mughal Era) के दौरान भारत में इसे बहुत संरक्षण मिला, जब बगदाद (Baghdad), तुर्की (Turkey), ईरान (Iran) और मिस्र के कबूतरबाज लगभग 1500 के दशक में उनके दरबार में आए, तब मुगल शासकों ने इसे अपने अभिजात (Aristocracy) वर्ग के साथ नियमित संवाद के एक शानदार तरीके के तौर पर स्थापित करने के बारे में सोचा. मुगल शासकों (Mughal Rulers) की कबूतर-बाजी में खास दिलचस्पी थी. शहजादा सलीम यानि जहांगीर (Jahangir) कबूतरबाजों की संगति में कई घंटे कबूतर-उड़ान के गुर सीखने में बिताते थे.


कबूतरों से इश्क में किया निकाह


ऐसा कहा जाता है कि एक दिन शहजादे सलीम ने महल की एक युवा लड़की मेहरुन्निसा को अपने दो कबूतरों को पकड़ने को कहा. इस दौरान उनके अब्बाजान शंहशाह अकबर (Akbar) ने उन्हें बुलाया था. जब वो लौटकर आए तो मेहरुन्निसा के हाथ में एक ही कबूतर था. जब शहजादे सलीम ने लड़की से दूसरे कबूतर के बारे में पूछा तो उसने हाथ में पकड़ा दूसरा कबूतर भी मजाकिया अंदाज में उड़ा दिया. इसी घटना के बाद शहजादे को इस लड़की से प्यार हो गया और बाद में उन्होंने उससे निकाह कर लिया जो आगे चलकर नूरजहां नाम से मशहूर हुई. अकबर खुद कबूतर पालने के बेहद शौकीन था. उनके पास खुद के करीब 20,000 कबूतर थे. उन्होंने इस शगल को "इश्कबाजी" या लव-प्ले कहा.


सबसे पहले इस किताब में आया ये लफ्ज


कबूतरबाजी का उल्लेख सबसे पहले विलियम डेलरिपंल (William Dalrymple) ने दिल्ली पर लिखी अपनी एक किताब में किया था. इसमें वह कबूतरों के झुंड को काबू करने वाले पुरुषों के कौशल के बारे में बात करते हैं. इसमें ये पुरुष केवल कुछ मौखिक आदेशों के साथ कबूतरों को उड़ने और वापस उतरने के लिए मजबूर करते हैं. कबूतरों के झुंड के ये मालिक पूरे साल अपने इन कबूतरों को ट्रेनिंग देते थे. कबूतरबाजी की ये प्रतियोगिताएं बेहद फक्र की बात मानी जाती थी. इसमें जीतने वाले को बहुत इज्जत मिलती थी. इस खेल में बेहतरीन खिलाड़ी को "उस्ताद" कहा जाता था.


दिल्ली में अभी भी जारी है ये खेल


उत्तर भारत में पुरानी दिल्ली (Delhi) में अभी भी कबूतरबाजी के खेल की ये संस्कृति जारी है. कबूतर मास्टर या कबूतर बाज कबूतरों को उठाता है और उनकी सेहत की देखभाल करता है, क्योंकि वह हर पक्षी की ताकत और सहनशक्ति के तौर पर उसे खेल के लिए तैयार करता है, लेकिन आज यहां केवल दूरी-उड़ान की एक प्रतियोगिता ही रह गई. इसमें इसमें सबसे दूर उड़ान भरने वाले कबतूर के मालिक को कबूतर के वापस लौटने पर विजयी घोषित किया जाता है. एक तरह से इसे कबूतर की मैराथन के तौर पर लिया जा सकता है.


इस प्रतियोगिता में कबूतरों के मालिक एक खास जगह इकट्ठा होते हैं और अपने कबूतरों को उड़ान के लिए छोड़ देते हैं. इस दौरान कई आयोजक खास जगहों पर तैनात रहते हैं, जो इस बात का जायजा लेते हैं कि कबूतर कितनी दूर और कितने वक्त तक उड़ चुका है. पहला कबूतर जो रास्ता पूरा करता है और अपने मालिक के पास लौटता है वह विजेता होता है. मालिक अपने कबूतरों को इत्र के पानी से नहलाते हैं, ताकि इन्हें एक- दूसरे से अलग करना आसान हो. पहचान के लिए कबूतरों के पतले पैरों पर छोटे-छोटे बैंड भी लगाए जाते हैं. इन कबूतरों को मालिक की आवाज को पहचानने के लिए ट्रेनिंग भी दी जाती है. कबूतरबाजी अब दुर्लभ खेलों में से एक है, लेकिन फिर भी हमारे देश के कुछ इलाकों में इन खेलों में विश्वास है. वहां बहुत ईमानदारी से इनका पालन करते हैं. ऐसे सभी खेल एक खास समाज में रिश्तों को मजबूत करने का अच्छा तरीका साबित हुआ है.


आगरा में होता है शानदार आयोजन


आगरा से 20 किलोमीटर दूर कुबेरपुर (Kuberpur) में कबूतरबाजी की प्रतियोगिता हर साल होती है. यहां इसे कुलकुलबाज़ी (Kulkulbazi) कहा जाता है. यहां अलग-अलग धर्मों के लोग अपने मतभेदों को भुलाकर इस छह दिन के उत्सव में शामिल होते हैं. साल 2014 में यहां 10,000 दर्शकों और प्रतिभागियों के जमावड़े लगा था. इस दौरान कबूतरबाज अपनी कबूतरबाजी के कौशल का प्रदर्शन करते हैं. मजे की बात ये है कि बगैर किसी पुलिस और प्रशासनिक हस्तक्षेप के यहां हुजूम शांति इस उत्सव में शिरकत करता है. 


हिंदी के मुहावरों में कबूतरबाजी


कबूतर उड़ाना और कबूतरबाजी जैसे मुहावरे भी हिन्दी में मशहूर हैं. वैसे आजकल कमीशन खाकर बेरोजगारों को अवैध तरीके से विदेश पहुंचाने के मामले में कबूतरबाजी लफ्ज का मुहावरेदार इस्तेमाल प्रचलन में हैं. इसके पीछे यह वजह हो सकती है कि बेरोजगार कबूतरों को फंसाकर कमीशनखोर उन्हें विदेशी जमीं भेजने का ख्वाब दिखा उन्हें छोड़ देते हैं. इस फास्ट जमाने में यह जानकार आपको अंचभा होगा कि कबूतर प्राचीन काल में डाकिये का काम भी करता रहा है. लगभग ढाई सदी पहले वाटरलू की लड़ाई (Battle of Waterloo) के वक्त ब्रिटिश सरकार मित्र राष्टों को संदेश पहुंचाने का काम कबूतरों से करवाती थी. बकायदा इसके लिए ब्रिटेन में एक ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी थी. इसने 65  मील की कबूतर संदेश सेवा बनाई थी. 


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