भारत एक प्रगतिशील देश है और आज हमारा देश न सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक तौर पर प्रगति कर रहा है बल्कि सोच के स्तर पर भी अब काफी बदलाव आ रहे हैं. युवा आधुनिक सोच के साथ दकियानुसी मानसिकता को नकार रहे हैं. आजकल लड़के-लड़कियां साथ बैठना, साथ घूमना-फिरना यहां तक की साथ लिव-इन में रहना भी पसंद करते हैं. युवाओं में शादी से लेकर सेक्स तक पर सोच में बदलाव आए हैं. कई लोग शादी करना ही नहीं चाहते तो कईयों के लिए शादी से पहले संबंध बनाने का फैसला उनका निजी फैसला होता है.. लड़कियां अब शादी के बाद भी पहले की तरह 'पतियों की निजी जायदाद' बनकर नहीं रहती हैं. उनका अपना करियर होता है, अपनी इच्छाएं होती हैं और उसे हर हाल में वो पूरा करना चाहती हैं.
शादी और बच्चों को लेकर युवाओं के नजरिए को समझने के लिए बॉलीवुड की एक मशहूर फिल्म ‘ये जवानी है दीवानी’के एक डायलॉग पर नजर डाल लेते हैं... इस फिल्म का नायक नायिका से कहता है- शादी के बेसिक कॉन्सेप्ट में ही झोल है... इसे पांच-छह बार करने से अच्छा है कि शादी करो ही मत....
इसपर नायिका पूछती है- और अगर बच्चे चाहिए तो!
नायक जवाब देता है – उसका शादी से क्या लेना-देना. वो तो हम अभी बना सकते हैं. मैं ट्विन्स भी बना सकता हूं....
इस फिल्म ने एक हफ्ते में सौ करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया था. यानी फिल्म मशहूर हुई और युवाओं को काफी पसंद आई. इसका एक ही कारण है. आजकल के युवा शादी और बच्चों को लेकर 'मोरल पुलिसिंग' नहीं चाहते हैं. वो कथित पारंपरिक शादी और वैवाहिक जीवन के ताने-बाने से खुद को मुक्त कर हनीमून से लेकर बच्चे तक सब चीजों पर आपस में प्लानिंग करते हैं. उनके लिए शादी जैसी संस्था सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए आवश्यक नहीं है. हालांकि ये खुली सोच वाली समाज आसानी से रास नहीं आती और इसलिए युवा पीढ़ी की "मोरल पोलिसिंग" होती है.
मद्रास HC ने कहा- शादी सिर्फ सेक्स के लिए नहीं असल मकसद बच्चे पैदा करना
मद्रास उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को एक फैसला सुनाया जिसकी चर्चा हर जगह हो रही है. इसमें कहा गया कि वैवाहिक बंधन में बंधने वाले जोड़ों को यह याद रखना चाहिए कि विवाह केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं है बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य संतान पैदा करना है.
दरअसल मद्रास हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति कृष्णन रामासामी ने यह स्टेटमेंट उस केस की सुनवाई के दौरान दिया जिसमें एक महिला अपने नाबालिग बच्चों की कस्टडी के लिए लड़ रही थी. न्यायमूर्ति कृष्णन रामासामी ने कहा कि बच्चों को दो लोग "अपनी खुशी के लिए किए गए कृत्य के माध्यम से इस शातिर दुनिया" में लाते हैं.
कोर्ट ने कहा, "यह न्यायालय वैवाहिक बंधन में बंधे व्यक्तियों को बताना चाहती है कि विवाह की अवधारणा केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं है, बल्कि यह मुख्य रूप से प्रजनन के उद्देश्य के लिए है, जो परिवार का विस्तार करती है.''
मद्रास HC के इस फैसले के बाद शादी का असल मकसद क्या है इसको लेकर बहस हो रही है. एक बार फिर विचारों का टकराव हो रहा है. कई कोर्ट के इस बयान से सहमत नहीं दिख रहे हैं कि शादी का असल मकसद बच्चे पैदा करना है और परिवार बढ़ाना है. खासकर युवाओं में इसको लेकर अलग-अलग मत हैं.
क्या कहते हैं युवा
क्या शादी का मकसद सिर्फ बच्चे पैदा करना है? क्या परिवार बढ़ाना ही शादी का असल मकसद है? क्या है शादी को लेकर युवाओं की सोच.. इस सवाल को लेकर एबीपी न्यूज़ ने कुछ युवाओं की राय जाननी चाही. आइए देखें उन्होंने क्या कहा...
दिल्ली के उत्तम नगर में रहने वाली रुचिका शर्मा का कहना है, ''शादी का मकसद सिर्फ बच्चे पैदा करना और परिवार बढ़ाना नहीं है. बच्चे तभी होने चाहिए जब पार्टनर्स मेंटली, फिजिकली और सबसे जरूरी फाइनेंसली तैयार हों. फाइनेंस सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है. अगर आपके पास पैसे ही नहीं हो और आप शादी कर के बच्चे पैदा कर लें तो क्या एजुकेशन और क्या बेहतर भविष्य दे पाएंगे.''
रुचिका आगे कहती हैं,'' बच्चे छोड़िए शादी के लिए भी एक-दूसरे को जानना बेहद जरूरी है. मैंने कई लोगों को देखा है जो प्यार करते हैं और फिर शादी लेकिन बाद में रिश्ते का अंत तालाक पर हो जाता है. इसलिए आज युवाओं को हर मुद्दे पर शादी से पहले और बाद में भी बात करते रहना चाहिए. रिश्ते को एक-दूसरे की समझ ही बचाया जा सकता है.''
वहीं झांसी की इफ़्फ़त खान का कहना है, '' निकाह का मकसद सिर्फ बच्चे पैदा करना कतई नहीं है. हालांकि रिश्ते में प्यार हो और उस प्यार से जन्मा बच्चा हो तो वो हमेशा खास रहता है. जब कोई किसी से निकाह करता है तो यह शारीरिक जुड़ाव ही नहीं होता बल्कि कई तरह दो लोग आपस में जुड़ते हैं. दोनों के सपने, दोनों की आजादी और दोनों के ख्यालों को साथ लेकर चलना पड़ता है. निकाह का असल मकसद यही है..सिर्फ बच्चे पैदा करना कतई नहीं.''
वहीं इस पूरे मामले पर जयपुर के मोहित का कहना है कि मेरी शादी को तो चार साल हो गए और अभी तक कोई बच्चा नहीं है. मेरा मकसद तो कभी शादी कर के बच्चे पैदा करना नहीं रहा. मैंने और मेरी पत्नी ने सोचा कि हम शादी के बाद प्लान करेंगे. हमने किया भी और आज दोनों अपने करियर में बेहतर कर रहे हैं. इसकी वजह अच्छी प्लानिंग है. अब हम फाइनेंशियल तौर पर स्टेबल हैं तो बच्चे के बारे में सोच रहे हैं.''
पहले भी SC से लेकर HC तक के फैसलों पर हुई है जमकर बहस
चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या हाई कोर्ट..इनके फैसले और बेंच द्वारा किया गया कमेंट कई बार विवादों में रहा है. आइए जानते हैं कब-कब शादी, सेक्स या संबंध और कानूनी दांवपेंच को लेकर कोर्ट का स्टेटमेंट चर्चा का विषय रहा..
पुरुष द्वारा एक नाबालिग के स्तनों को टटोलना यौन हमला नहीं-बॉम्बे हाईकोर्ट
पोक्सो एक्ट के तहत एक मामले की सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने कहा कि 12 साल की लड़की के स्तनों को एक पुरुष द्वारा टटोलना यौन हमला नहीं क्योंकि 'त्वचा से त्वचा' का संपर्क नहीं हुआ. उनके इस स्टेटमेंट के बाद काफी विवाद हुआ था.
जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने बाद में एक अन्य पोक्सो मामले में एक बयान पारित किया कि 5 साल की बच्ची का हाथ पकड़ना और उसकी पतलून खोलना यौन हमला नहीं और आरोपी को बरी कर दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी 'त्वचा से त्वचा' का संपर्क नहीं हुआ वाली टिप्पणी की अवहेलना की और उनको स्थायी न्यायाधीश का दर्जा देने से इनकार कर दिया.
'नाबालिग के साथ ओरल सेक्स पोक्सो अधिनियम की श्रेणी में नहीं आता- इलाहाबाद HC
इलाहाबाद HC के जस्टिस अनिल कुमार ओझा का एक फैसला चर्चा का विषय बन गया था. दरअसल वो एक मामले की सुनवाई कर रहे थे जिसमें एक 10 साल के लड़के को एक आदमी ने ओरल सेक्स के लिए मजबूर किया ऐसा आरोप था. पॉक्सो एक्ट में 'एग्रेटेड पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट' के लिए 10 साल की कैद का प्रावधान है. हालांकि जस्टिस अनिल कुमार ओझा ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए इसे गंभीर सेक्शुअल असॉल्ट नहीं माना. अनिल कुमार ओझा ने कहा कि मामला 'पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट' का है और उन्होंने आरोपी की सजा को घटाकर 7 साल कर दिया.
कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा-"यह स्पष्ट है कि अपीलकर्ता द्वारा किया गया अपराध न तो POCSO अधिनियम की धारा 5 और 6 और न ही POCSO अधिनियम की धारा 9 (एम) के अंतर्गत आता है, क्योंकि वर्तमान मामला यौन उत्पीड़न का है. इस मामले में पीड़ित के मुंह में अपना लिंग डाला गया है. लिंग को मुंह में डालना गंभीर यौन हमले या यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता है. यह 'पेनेट्रेटिव' यौन हमले की श्रेणी में आता है, जो POCSO अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडनीय है."
यह फैसला इसलिए भी विवादित था क्योंकि POCSO अधिनियम की धारा 5 (एम) में कहा गया कि जो कोई भी बारह वर्ष से कम उम्र के बच्चे पर यौन हमला करता है तो वह ''गंभीर पेनेट्रेटिव यौन हमले' के अपराध के साथ दंडनीय होगा. इस को लेकर एक्ट की धारा 6 के तहत सजा का प्रावधान है, लेकिन कोर्ट ने इस मामले को गंभीर यौन हमला मानने से ही इनकार कर दिया.
'लिव-इन रिलेशनशिप नैतिक रूप और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य' - पंजाब-हरियाणा HC
'लिव-इन रिलेशनशिप' वो होता है जहां दो लोग बिना किसी शादी के बंधन में बंधे पति-पत्नी की तरह रहते हैं. युवाओं में आजकल ये काफी लोकप्रिय है. युवाओं में ये कितनी भी लोकप्रिय हो मगर पंजाब-हरियाणा HC इस तरह के फैसले को सही नहीं मानता है.
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति एचसी मदान ने एक साथ रहने वाले और शादी करने का इरादा रखने वाले एक जोड़े की याचिका पर सुनवाई करते हुए एक बयान दिया था. दरअसल जोड़े ने कोर्ट में कहा था कि लड़की के परिवार से उन्हें खतरा है और वो सुरक्षा चाहते हैं. इस मामले पर फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति एचसी मदान ने कहा कि लिव-इन संबंध अस्वीकार्य हैं और इसलिए, युगल को अदालत से कोई सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती है.