Cast Census Row: कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मोदी सरनेम मामले में दो साल की सजा सुनाई गई है, वहीं उनकी लोकसभा सदस्यता भी रद्द कर दी गई है. कांग्रेस जहां इसे बदले की भावना बता रही है, वहीं तमाम बीजेपी नेताओं ने सरकार के बचाव में उतरकर कहा कि राहुल गांधी ने ओबीसी समाज का अपमान किया था. जिसके बाद कोर्ट की तरफ से उन्हें ये सजा सुनाई गई है. ओबीसी समाज का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. हालांकि अब विपक्ष ने बीजेपी को इसी मुद्दे पर घेरने की पूरी तैयारी कर ली है. तमाम विपक्षी दल बीजेपी से ओबीसी के बहाने ये सवाल पूछने लगे हैं कि सरकार आखिर जातिगत जनगणना के खिलाफ क्यों है? आइए समझते हैं क्या है ये जातिगत जनगणना का पूरा विवाद और क्यों सरकार इससे साफ इनकार कर रही है. 


कैसे हुई विवाद की शुरुआत
सबसे पहले आपको संक्षेप में ये बताते हैं कि जातिगत जनगणना का ये मुद्दा अब हर विपक्षी नेता की जुबान पर क्यों चढ़ गया है. दरअसल राहुल गांधी को सूरत की एक कोर्ट ने मोदी सरनेम मानहानि मामले में दोषी करार दिया और इसके बाद तुरंत 2 साल की सजा का भी ऐलान हो गया. कुछ ही घंटों बाद राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता भी रद्द हो गई. इस मामले पर जमकर राजनीति शुरू हो गई और कांग्रेस ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया. वहीं सरकार की तरफ से मंत्री और प्रवक्ता सामने आए और कहा कि ओबीसी समाज और पिछड़ों का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. बीजेपी ने इसे ओबीसी बनाम राहुल गांधी बनाने पर पूरा जोर लगा दिया. 


विपक्ष ने छेड़ा जातिगत जनगणना का मुद्दा
अब पहले तो कांग्रेस नेताओं की तरफ से ये दलील दी गई कि राहुल गांधी ने नीरव मोदी, ललित मोदी और बारी भगौड़ों का जिक्र किया था, इसमें ओबीसी समाज के अपमान की कोई बात नहीं थी. हालांकि ये बात ज्यादा सुनी नहीं गई और कांग्रेस अपनी बात को लोगों तक भी ठीक से नहीं पहुंचा पाई. इसके बाद कांग्रेस समेत विपक्ष ने पलटवार के लिए एक ऐसा मुद्दा उठाया, जिसने बीजेपी को बैकफुट पर धकेल दिया. ये मुद्दा जातिगत जनगणना का है, जिसे लेकर अब पूरा विपक्ष एकजुट दिख रहा है और सरकार से इसकी मांग कर रहा है. 


तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस के तहत तमाम विपक्षी दलों को एकजुट किया और इस कॉन्फ्रेंस में सरकार से मांग की गई कि सरकार को अगर वाकई पिछड़े लोगों की चिंता है तो वो जातिगत जनगणना को लेकर आए. इस कॉन्फ्रेंस में झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन, राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत, बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और तमाम अन्य दलों के नेता शामिल हुए. 


क्या है विपक्षी दलों की मांग?
पिछड़े समाज के अपमान के बाद बीजेपी की चिंता को हथियार बनाते हुए विपक्षी दलों ने एक सुर में कहा है कि देश में जातिगत जनगणना जरूरी है. विपक्षी दलों ने कहा कि जो आर्थिक असमानता बढ़ रही है, उसे रोकने के लिए ये जरूरी है. सरकार को सामाजिक न्याय के लिए जातिगत जनगणना को लेकर आना चाहिए. विपक्ष का कहना है कि 1931 की जनगणना के बाद भारत में जातीय आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई है. इसीलिए कई दशकों पुराने आंकड़ों के आधार पर संसाधनों का बंटवारा किया जा रहा है. विपक्ष ने बीजेपी को घेरते हुए कहा कि अगर वाकई में बीजेपी को पिछड़ों की इतनी चिंता है तो उसे उनके सामाजिक कल्याण के लिए जाति के आधार पर जनगणना करानी होगी. 


जातिगत जनगणना से सरकार क्यों कर रही इनकार?
अब सवाल ये है कि जब 1931 के बाद से देश में आधिकारिक तौर पर जातिगत जनगणना नहीं हुई तो सरकार इसे कराने से क्यों इनकार कर रही है. इसे लेकर खुद सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दिया है. सरकार ने जातिगत जनगणना कराने से साफ इनकार कर दिया. केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा था कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना इसलिए नहीं कराई जा सकती है, क्योंकि ये व्यवहारिक नहीं है और प्रशासनिक तौर पर काफी मुश्किल है. 2021 में महाराष्ट्र सरकार की तरफ से दायर की गई याचिका में मांग की गई थी कि केंद्र सरकार पिछड़े वर्ग के लोगों के आंकड़े भी जनगणना में जुटाए. इसके अलावा 2011 में हुई जनगणना के आंकड़े भी जारी करे. जिसके जवाब में सरकार ने ये हलफनामा दिया था. 


2011 के आंकड़े अब तक नहीं हुए जारी
बता दें कि 1931 के बाद 2011 में यूपीए सरकार की तरफ से जातीय जनगणना कराई गई थी, लेकिन इसके आंकड़े अब तक जारी नहीं किए गए हैं. तब कहा गया गया था कि इस आंकड़े को इसलिए जारी नहीं किया गया, क्योंकि इसमें काफी सारी खामियां थीं. साल 2021 में इसके लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमेटी बनाने का भी फैसला किया गया था, लेकिन इसके सदस्य ही तय नहीं हो पाए. जिसका नतीजा ये है कि आज तक ये कमेटी नहीं बन पाई है. यानी 2011 के आंकड़ों को सुधारने के लिए अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया है और नए सिरे से जातिगत जनगणना से तो सरकार ने साफतौर से इनकार ही कर दिया है. 


जातिगत आंकड़े जारी होने पर क्या होगा?
बिहार में नीतीश कुमार जब बीजेपी के साथ हुआ करते थे, तब उन्होंने खुलकर जातिगत जनगणना की बात कही थी. इसे भी उनके बीजेपी से अलग होने का एक बड़ा कारण माना जाता है. अब नीतीश बिहार में जाति आधारित जनगणना कराने जा रहे हैं. अहम सवाल ये है कि क्यों सरकारें जातिगत आंकड़ों से घबराती आई हैं और इसे जारी करनें में ऐसी क्या दिक्कत आएगी. 


दरअसल राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सरकारों को इस बात का डर है कि अगर जातिगत जनगणना में अलग-अलग जातियों के आंकड़ों में भारी उछाल देखा जाता है तो इससे उनकी जवाबदेही ज्यादा बढ़ जाएगी. यानी उस जाति को रिप्रजेंट करने वाले लोग सरकार से सवाल पूछना शुरू कर देंगे. सरकार को अलग से इन पिछड़ी जातियों के लिए योजनाएं तैयार करनी होंगी, वहीं पिछले सालों का हिसाब भी देना होगा. 


क्या कहते हैं एक्सपर्ट
पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई ने इस पूरे मामले को समझाया कि कैसे राजनीतिक दल जातिगत जनगणना से दूर भाग रहे हैं. उन्होंने कहा, जातिगत जनगणना कराने या फिर इसके आंकड़े जारी करने का मतलब आरक्षण को लेकर एक नई बहस शुरू करना है. जो सरकार किसी भी हाल में नहीं चाहती है. कहा जाता है कि आरएसएस की तरफ से भी इसे लेकर कभी हरी झंडी नहीं मिल सकती है, क्योंकि आरएसएस कहता है कि लोगों को धर्म के आधार पर एकजुट किया जाए, जाति के आधार पर नहीं. इसीलिए सरकार फिलहाल इस मुद्दे पर बैकफुट पर नजर आ रही है. 


ये भी पढ़ें - Karnataka Election 2023: कर्नाटक में बीजेपी के लिए कितना अहम है येदियुरप्पा फैक्टर? चुनाव से ठीक पहले क्यों बदलने पड़े समीकरण