लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, अगर कोई पार्टी अपने दम पर बहुमत लाने में असफल होती है और गठबंधन में सरकार बनाती है तो लोकसभा-विधानसभा में अध्यक्ष की भूमिका काफी अहम हो जाती है.
इस बार एनडीए ने तीसरी बार अपनी सरकार तो बना ली है, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव की तरह इस चुनाव में बीजेपी बहुमत पाने में असफल रही. अब चर्चा है कि मोदी 3.0 को अहम समर्थन देने वाली TDP और जेडीयू स्वास्थ्य और कृषि मंत्रालय के साथ-साथ स्पीकर पद चाह रही है.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने अब तक लोकसभा अध्यक्ष के इस पद के लिए किसी सहयोगी दलों के दबाव की चर्चा की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं की है. ऐसे में इस रिपोर्ट में हम विस्तार से जानते हैं कि लोकसभा में अध्यक्ष की पोस्ट पर सबकी नजर क्यों है?
सबसे पहले समझते हैं कैसे चुना जाता है लोकसभा स्पीकर
नई लोकसभा की पहली बैठक से पहले पुराने लोकसभा अध्यक्ष को अपने पद से इस्तीफा देना होता है. पुराने स्पीकर के इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति संविधान अनुच्छेद 95(1) के तहत एक प्रोटेम स्पीकर नियुक्त करता है.
पारंपरिक रूप से सदन के लिए चुनकर आए सबसे वरिष्ठ सदस्य प्रोटेम स्पीकर के तौर पर चुना जाता है. प्रोटेम स्पीकर ही सदन की पहली बैठक संचालित करता है. सभी सदस्यों को शपथ दिलाने का काम भी प्रोटेम स्पीकर का ही है. प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में ही स्पीकर का चुनाव होता है.
संविधान का अनुच्छेद 93 कहता है कि सदन के शुरू होने के बाद जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी स्पीकर चुना जाना चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष का कार्यकाल उनके चुनाव की तारीख से लेकर अगले प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति से ठीक पहले तक होता है.
किसे मिल सकता है ये पद
लोकसभा अध्यक्ष बनने के लिए किसी भी तरह की विशेष योग्यता या कैटेगरी की जरूरत नहीं होती, लोकसभा का कोई भी सांसद इस पद पर नियुक्त हो सकता है. स्पीकर का वेतन भारत की संचित निधि से दिया जाता है.
कितना पावरफुल है स्पीकर का पद
लोकसभा अध्यक्ष का काम ये सुनिश्चित करना होता है कि सदन के बैठक का संचालन ठीक तरीके से हो. इसके अलावा सदन में लोकसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी होती है कि वह इस बात की निगरानी रखे की सदन के भीतर सही तरीके से व्यवस्था बनी है नहीं और इसके लिए वह निर्धारित नियमों के तहत कार्यवाही भी कर सकते हैं. इस कार्यवाही में सदन को स्थगित करना या निलंबित करना शामिल है.
संसद में स्पीकर का ये पद इतना पावरफुल है कि अध्यक्ष ही तय करते हैं कि संसद में होने वाले बैठक का एजेंडा क्या होगा. या किस बिल पर कब वोटिंग की जाएगी. इतना ही नहीं स्पीकर को ही ये तय करने का अधिकार है कि कौन वोट कर सकता है.
विपक्ष के नेता को मान्यता देने का काम भी लोकसभा अध्यक्ष ही करते है. जब सदन चल रहा होता है तो सैद्धांतिक तौर पर लोकसभा अध्यक्ष का पद किसी पार्टी से जुड़ा न होकर बिल्कुल निष्पक्ष होता है.
स्पीकर ही स्वीकार करता है अविश्वास प्रस्ताव और टेंडर वोट
सदन में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार भी अध्यक्ष ही करते हैं स्वीकार. हालांकि ऐसी परिस्थिति में स्पीकर का स्वीकार करना जरूरी है लेकिन स्पीकर चाहे तो इसे थोड़े वक्त के लिए टाल भी सकते हैं.
साल 2018 में जब वाईएसआरसीपी और टीडीपी ने अविश्वास प्रस्ताव के लिए नोटिस दिया था तो उस वक्त अध्यक्ष रहे सुमित्रा महाजन ने अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार करने और वोटिंग से पहले सदन को कई बार स्थगित किया था.
संविधान का अनुच्छेद 100 कहता है कि स्पीकर सदन में वोट नहीं डाल सकते लेकिन किसी भी प्रस्ताव पर बराबर वोट पड़ने पर उसे निर्णायक मत मतलब टेंडर वोट देने का अधिकार है. हालांकि भारत की राजनीति में आज तक कभी ऐसी स्थिति बनी नहीं जब स्पीकर को टेंडर वोट देना पड़े.
कब हुई इस पद की शुरुआत
भारत में साल 1921 में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद की शुरुआत भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) के प्रावधानों के अंतर्गत किया गया था. उस वक्त अध्यक्ष को प्रेसिडेंट और उपाध्यक्ष को डिप्टी प्रेसिडेंट कहा जाता था, यह प्रथा साल 1947 तक चलती रही.
इसके बाद भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रेसिडेंट और डिप्टी प्रेसिडेंट के नामों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष में बदल दिया गया.
क्या स्पीकर के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
1 जुलाई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में लोकसभा अध्यक्ष के खिलाफ याचिका पर सुनवाई की. इस दौरान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमन्ना ने कहा कि दल-बदल कानून में कोर्ट के पास सीमित अधिकार हैं. किसी भी स्पीकर के फैसले को इस कानून के तहत समय-सीमा में नहीं बांधा जा सकता है.
स्पीकर के कारण कब गिरी सरकार
13 मार्च 1998 को देश में एनडीए की अगुवाई में अटल बिहारी वायपेयी की नई सरकार बना ली थी. उस वक्त एनडीए को दक्षिण भारत की दो प्रमुख पार्टियों DMK और TDP का समर्थन मिला था.
टीडीपी ने जिद करके अपनी पार्टी के नेता जीएमसी बालयोगी को स्पीकर बनवा लिया. लेकिन सरकार बनने के लगभग 13 महीने बाद ही डीएमके ने अपना समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया. यहां स्पीकर का रोल बेहद अहम हो गया. दरअसल अटल सरकार के पास बहुमत है या नहीं, ये पता करने के लिए 17 अप्रैल 1999 को अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग कराई गई.
इस दौरान कुछ लोगों का कहना है कि तत्कालीन स्पीकर बालयोगी ने लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन की तरफ एक पर्ची बढ़ाई. गोपालन ने उस पर कुछ लिखा.
उस पर्ची में बालयोगी ने एक रूलिंग दी थी, जिसमें अनुमति दी गई थी कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग अपने विवेक के आधार पर वोट दे सकते थे. दरअसल, गोमांग को फरवरी महीने में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बनया गया था, लेकिन अविस्वास प्रस्ताव तक उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था. ऐसे में स्पीकर को ही ये तय करना था कि संसद में वो वोट देंगे या नहीं.
इस तरह भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब कोई मुख्यमंत्री संसद में वोट देने पहुंचा था. उन्होंने अपना वोट अटल बिहारी सरकार के खिलाफ दे दिया. इलेक्ट्रॉनिक स्कोर बोर्ड पर अटल सरकार के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत दिखाई पड़े. इस तरह स्पीकर ने विशेष अधिकार का इस्तेमाल करते हुए एक वोट से अटल की सरकार गिरा दी.
स्पीकर से फैसले से कब कब मुसीबत में आई सरकार
भारत के संसदीय इतिहास में, लोकसभा अध्यक्षों ने संसदीय मर्यादा बनाए रखने और विधायी प्रक्रियाओं को सुविधाजनक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हालांकि, उनके फैसलों ने कई बार, निष्पक्षता और राजनीतिक दबावों को संतुलित करने की जटिलताओं को रेखांकित करते हुए, केंद्र सरकारों के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पैदा की हैं.
1. जी. एम. सी. बालयोगी (1998-2002)
2001 में लोकसभा स्पीकर जीएमसी बालायोगी ने तहलका एक्सपोज पर बहस की अनुमति दे दी थी. जिसमें शीर्ष बीजेपी नेताओं को भ्रष्टाचार घोटाले में फंसाया गया था. स्पीकर के इस फैसले ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार को मुसीबत में डाल दिया था.
2. सोमनाथ चटर्जी (2004-2009)
साल 2005 में लोकसभा अध्यक्ष का पद सोमनाथ चटर्जी संभाल रहे थे. उस वक्त उन्होंने रिश्वत घोटाले में शामिल 11 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निष्कासित कर दिया था, जिससे यूपीए सरकार को काफी राजनीतिक शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी.
3. पी. ए. संगमा (1996-1998)
पी. ए. संगमा ने लोकसभा स्पीकर रहते हुए साल 1996 में झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत मामले में शामिल सांसदों के निष्कासन को जिस तरीके से संभाला था उससे काफी राजनीतिक तनाव पैदा हो गया था. उस वक्त प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की स्थिरता भी प्रभावित हो गई थी.
4. मीरा कुमार (2012-2014)
2012 में कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले पर बहस की अनुमति देने के लोकसभा स्पीकर के फैसले से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को गंभीर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था और जवाबदेही और पारदर्शिता की मांग भी तेज हो गई थी.
5. मनोहर जोशी (2002-2004)
2003 में विवादास्पद दूरसंचार नीति परिवर्तनों पर विस्तृत चर्चा की अनुमति देने के जोशी के फैसले ने एनडीए सरकार को अपनी नीतियों को सही ठहराने के लिए गंभीर जांच और दबाव में डाल दिया.