Places Of Worship Act 1991: वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद का मामला इन दिनों सुर्खियों में है. सोमवार को ही इस मामले में वाराणसी की जिला अदालत ने मुस्लिम पक्ष की याचिका खारिज कर दी है. जिला अदालत के जज अजय कृष्णा विश्वेश ने अपने फैसले में कहा कि श्रृंगार गौरी पूजा याचिका सुनवाई योग्य है. ऐसे में पूजा स्थल अधिनियम 1991 (Places Of Worship (Special Provisions) Act 1991) पर बात करना भी लाजिमी है. दरअसल इस कानून के हिसाब से ज्ञानवापी मस्जिद का हल किए जाने की पहल भी इसलिए भथरी साबित हो रही है क्योंकि ये कानून खुद ही परीक्षण के दौर से गुजर रहा है.


पूजा स्थल अधिनियम कब और क्यों आया


साल 1991 में राम मंदिर निर्माण के लिए जोरशोर से आंदोलन (Ram Janmabhoomi Movement) चल रहा था. साल 1990 में बीजेपी नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने इस मंदिर के निर्माण के लिए पूरे देश में रथयात्रा शुरू की. इस यात्रा के दौरान उन्हें बिहार में गिरफ्तार किया गया. यही वह दौर था जब कारसेवकों पर गोलियां भी चलीं थीं. इस वजह से पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया था. राम मंदिर के निर्माण वाले यूपी में खासकर माहौल बेहद खराब हो गया. इन हालातों में 18 सितंबर 1991 को पूजा स्थल अधिनियम 1991 (Places Of Worship (Special Provisions) Act 1991) बनाया गया. उस वक्त देश में कांग्रेस की सरकार थी. तब इस सरकार में तत्तकालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव (P.V. Narasimha Rao) थे.


नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को कम करने के लिए पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम लेकर आई थी.


इस कानून के बारे में बात करें तो ये कानून कहता है कि भारत में 15 अगस्त 1947 तक जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में थे, वो साल 1947 के बाद भी अपने उसी स्वरूप में रहेंगे यानी उनके पुराने स्वरूप में कोई बदलाव नहीं होगा. इसमें साफ कहा गया था कि साल 1947 से पहले किसी भी धार्मिक स्थल को किसी अन्य धर्म के धार्मिक स्थल में नहीं बदला जा सकता है. इस कानून का उल्लंघन करने वालों को जेल और जुर्माने का प्रावधान किया था. हालांकि इसमें जेल और जुर्माना केस के हिसाब से तय करने की बात कही गई है. 


रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामला


हम सभी के जेहन में ये सवाल बार-बार कौंधता होगा कि आखिर राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले में पूजा स्थल कानून 1991 कारगर क्यों नहीं हुआ. इसके पीछे है इस कानून की धारा 5 का योगदान. इसके तहत अयोध्या विवाद को इससे बाहर रखा गया. अब अयोध्या विवाद इससे बाहर क्यों रखा गया, इसके पीछे भी एक वजह है. इसकी वजह है कि अयोध्या विवाद का मामला साल 1947 यानी भारत की आजादी के पहले से अदालत में था.


अयोध्या में विवादित मस्जिद उस समय पूजा स्थल कानून 1991 के बनने से पहले ही कानूनी जांच के दायरे में थी, इसलिए कानून ने इसकी संरचना को छूट दी. इसके अगले साल बाबरी ढांचा ध्वस्त कर दिया गया. यही वजह रही कि साल 1991 में जिस वजह इस कानून को लाने की जरूरत महसूस की गई, वही वजह इससे बाहर हो गई. इसमें उन पूजा स्थलों को भी शामिल किया जा सकता है जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तहत आते हैं और उनके रखरखाव पर कोई प्रतिबंध नहीं है. 


साल 1991 और ज्ञानवापी मस्जिद


अगर आप ये सोच रहे होंगे कि साल 1991 में पूजा स्थल कानून 1991 बनने के बाद ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Mosque) का मामला कहां था. दरअसल ज्ञानवापी मस्जिद भी 1991 से पहले ही विवादों में रही है. पूजा स्थल कानून 1991 के बनने के बाद मस्जिद के सर्वेक्षण के लिए अदालत में एक याचिका दायर की गई थी. इस याचिका के दायर होने के कुछ दिनों बाद ही ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंधन ने पूजा स्थल कानून 1991 का हवाला देते हुए याचिका को रद्द करने की मांग की थी. इसके बाद 1993 में इलाहबाद हाईकोर्ट ने कार्यवाही पर रोक लगा दी और यहां यथास्थिति बनाए रखने का फैसला सुनाया.


इसके बाद साल 2017 में ये मामला वाराणसी सिविल कोर्ट पहुंचा. इसी बीच एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि कोई भी स्टे ऑर्डर 6 महीने से अधिक वक्त तक वैध नहीं हो सकता है. इस दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा कि 6 महीने के बाद स्टे ऑर्डर को रिन्यू करना जरूरी है. इस फैसले को आधार बनाकर ज्ञानवापी मस्जिद के स्टे ऑर्डर की वैधता को लेकर सवाल उठाया गया. साल 2019 में दोबारा ये याचिका सिविल कोर्ट में पहुंची और इसमें मस्जिद के सर्वे की मांग को भी जोड़ दिया गया. पूजा स्थल कानून 1991 को बीजेपी की तरफ से अक्टूबर 2020 में चुनौती दी जा चुकी है.


साल 2020 में ही बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने पूजा स्थल कानून 1991 पर सवाल उठाया. उन्होंने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. उन्होंने इस याचिका में तर्क दिया कि केंद्र सरकार के पास कानून बनाने की शक्ति नहीं है, क्योंकि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विशेषाधिकार है.


बीजेपी नेता ने अदालत को दिए अपने दूसरे तर्क में कहा कि तीर्थ स्थल पर कानून बनाने की शक्ति केंद्र और राज्य सरकार दोनों के पास है, जब मामला अंतरराष्ट्रीय हो. उदाहरण के लिए जैसे कैलास मानसरोवर या ननकाना साहिब जैसे मामलों में. यदि मामला राज्य के धार्मिक स्थलों से जुड़ा है तो ये राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है. इसी तरह की याचिका एक अन्य हिंदू संगठन ने लखनऊ में दायर की थी. इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा है, लेकिन केंद्र सरकार ने अब तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है. 


पूजा स्थल अधिनियम 1991 कटघरे में


कुछ सत्तारूढ़ बीजेपी नेताओं की मांग है कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 को निरस्त किया जाए. उधर, दूसरी तरफ कानूनी विशेषज्ञ इसे अस्पष्ट धाराओं के साथ एक कमजोर कानून के रूप में देखते हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी और कट्टरपंथी हिंदू समूहों के नेताओं ने पीओडब्ल्यू अधिनियम 1991 ( PoW Act, 1991) को निरस्त करने का आह्वान किया है. कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने इसे एक कमजोर कानून करार दिया है. उनका कहना है कि इसमें अनेक मतलब देने वाली धाराएं हैं. इन धाराओं के एक से अधिक मतलब निकाले जा सकते हैं. दरअसल वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद (Shahi Idgah Mosque) के साथ मौजूदा वक्त में मुकदमेबाजी चल रही है.


एक तरह से देखा जाए तो इन मामलों में ये अधिनियम खुद ही कटघरे में हैं. हालांकि ये कानून धार्मिक स्थलों के स्वामित्व या स्थिति के संबंध में कानूनी मामलों को प्रतिबंधित करता है. ज्ञानवापी और मथुरा मस्जिदों के मामले में चल रही न्यायिक जांच इस कानून के इच्छित उद्देश्य के विपरीत है. इसे सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने 2019 की राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद (Ram Janmabhoomi-Babri Masjid) भूमि विवाद के फैसले में बरकरार रखा था. अपने फैसले में अदालत ने कहा,"एक विधायी हस्तक्षेप जो हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की एक अनिवार्य विशेषता के तौर पर गैर-प्रतिगमन (Non-Retrogression) को संरक्षित करता है." गैर-प्रतिगमन से यहां मतलब विशुद्ध रूप में बनाए रखे जाने से हैं. 


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