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Explained: भारत में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के जमाने से है वक़्फ़ का इतिहास, देश में कुल 32 वक़्फ़ बोर्ड, जानिए सबकुछ

पैग़म्बर मुहम्मद ने कहा था, ‘अपनी जायदाद को इस तरह ख़ैरात में दो कि न वो बेची जा सके, न ही किसी को दिया जा सके और न उसमें विरासत जारी हो, बल्कि उसका मुनाफ़ा लोगों को मिला करे.’

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने हाल ही में दो ऐसे फैसले लिए जिसकी वजह से कई जगहों पर बहस छिड़ गई. योगी सरकार के वो दो फैसले थे- मान्यता प्राप्त मदरसों का सर्वे और साथ ही वक्फ संपत्तियों का सर्वे. अपने फैसले को लेकर सरकार ने कहा कि सर्वे इसलिए जरूरी हैं क्योंकि इससे मदरसों में जहां शिक्षा व्यवस्था सुधरेगी तो वहीं वक्फ संपत्तियों का सर्वे भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जरूरी हैं.

जहां एक तरफ विपक्ष समेत कई मुस्लिम संगठन योगी सरकार के इस फैसले पर विरोध जताने लगे वहीं दारूल उलूम देवबंद सहित तमाम बड़े संस्थानों ने योगी सरकार के सर्वे के फैसले का समर्थन कर दिया. अभी ये मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि योगी सरकार ने एक और बड़ा फैसला करते हुए उत्तर प्रदेश में बंजर, ऊसर आदि सार्वजनिक संपत्तियों को वक्फ के तौर पर दर्ज करने के 1989 के शासनादेश को रद्द कर दिया है. 

योगी सरकार के इस फैसले के बाद से वक्फ चर्चा में है. लोग इसके बारे में जानना चाहते हैं. लोग समझना चाहते हैं कि आखिर वक़्फ़ का इतिहास क्या है? भारत में वक़्फ़ की ज़मीन का इतिहास कितना पुराना है? इसके साथ ही लोग ये भी जानना चाहते हैं कि आखिर देश में कुल कितने वक्फ़ बोर्ड हैं..आइए जानते हैं वक्फ़ बोर्ड को लेकर इन तमाम सवालों के जवाब

वक़्फ़ का इतिहास क्या है?

दुनिया में वक़्फ़ का इतिहास पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के ज़माने से शुरू हुआ है. पैग़म्बर मुहम्मद ने कहा था, ‘अपनी जायदाद को इस तरह ख़ैरात में दो कि न वो बेची जा सके, न ही किसी को दिया जा सके और न उसमें विरासत जारी हो, बल्कि उसका मुनाफ़ा लोगों को मिला करे.’ माना जाता है कि इस दुनिया में पहली बार सहाबा हज़रत उमर ने  अपनी क़ीमती ज़मीन वक़्फ़ की थी. उस समय पैग़म्बर ने यह तय कर दिया कि ये ज़मीन कभी बेची न जाए, न किसी को दिया जाए बल्कि इससे होने वाली आमदनी को गरीबों में बांटने और ग़ुलामों को आज़ाद कराने के लिए इस्तेमाल किया जाए. स्पष्ट रहे कि वक़्फ़ कोई भी चल या अचल संपत्ति हो सकती है जिसे इस्लाम को मानने वाले व्यक्ति अल्लाह के नाम पर या धार्मिक मक़सद या परोपकार के मक़सद से दान कर सकता है. ये संपत्ति भलाई के मक़सद से समाज के लिए दी जाती हैं और अल्लाह के सिवा कोई उसका मालिक नहीं होता और ना हो सकता है.  

भारत में वक़्फ़ की ज़मीन का इतिहास कितना पुराना है?

भारत में इस्लाम की आमद के साथ ही यहां मुसलमानों ने अपनी संपत्ति वक़्फ़ करनी शुरू कर दी थी, लेकिन माना जाता है कि ख़ास तौर पर मुग़लकाल में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के ज़माने में लोगों के ज़रिए किए गए वक़्फ़ को व्यवस्थित करने का काम किया गया. इन्हीं के दौर में भारत में भी बज़ाब्ता तौर पर वक़्फ़नामा बनाने का सिलसिला शुरू हुआ. कहा जाता है कि फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने अपने दौर-ए-हुकूमत में शिफ़ाखाना खोला, वहां हकीम व डॉक्टर बहाल किए गए. दवा की व्यवस्था की गई. तब लोगों ने इस शिफ़ाखाना के लिए लिखित तौर पर अपनी ज़मीने वक़्फ़ की थीं, ताकि इन शिफ़ाखाना में हर किसी का मुफ़्त इलाज हो सके. इसी दौर में दिल्ली में ‘मदरसा फ़िरोज़शाही’ खोला गया, जो अपने दौर सबसे बेहतरीन मदरसा माना जाता है. इसके लिए भी कुछ वक़्फ़ क़ायम किए गए थे ताकि इसकी आमदनी से इस मदरसे में पढ़ने वाले छात्रों की देखभाल और खाना-पानी हो सके. 

शेरशाह सूरी के ज़माने में वक़्फ़ सिस्टम थोड़ा और बेहतर बनाया गया. कहा जाता है कि शेरशाह जब ग्रैंड ट्रंक रोड बनवा रहे थे, उसी ज़माने में कुछ लोग उनके पास अपने गांव में मस्जिद की तामीर के लिए आएं, लेकिन शेरशाह ने इस सिलसले में एक फ़रमान जारी किया और कहा कि मुसलमान अपनी मस्जिद के लिए ख़ुद ही ज़मीन वक़्फ़ करें. गांव के लोग ही मस्जिद व वक़्फ़ की गई जाएदादों का हिफ़ाज़त व निगरानी करें और इन वक़्फ़ संपत्तियों से होने वाली हर आदमनी और खर्च का हिसाब एक रजिस्टर में दर्ज किए जाए. इतिहास के पन्ने बताते हैं कि शेरशाह अपने ज़माने में 1700 मुसाफ़िरखाने बनवाएं. इन मुसाफ़िरखानों में मुल्क के हर शख़्स के लिए ठहरने व खाने-पीने की व्यवस्था होती थी और इनका भी देख-रेख वक्फ़ के तहत ही की जाती थी. 

बादशाह जलालुद्दीन अकबर के ज़माने में वक़्फ़ सिस्टम और बेहतर करने की कोशिश हुई. वक़्फ़ के तहत मौजूद ज़मीनों की देख-रेख पर खास ध्यान दिया गया. इनके दौर में भी वक़्फ़ क़ायम किए गए और वक्‍फ़ की गई ज़मीनों पर काफ़ी आलीशान इमारतें बनीं. इस तरह से इस पूरे दौर वक़्फ़ का सिस्टम बेहतर होता गया और मुल्क में वक़्फ़ क़ायम होती रहीं.

अंग्रेज़ों में दौर में मुसलमानों ने अपनी ज़मीनें वक्‍फ़ करनी नहीं छोड़ीं. जहां एक तरफ़ इन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ कर रखी थी, वही दूसरी तरफ़ देश के कल्याण और अंग्रेज़ों से मुल्क को आज़ाद कराने के लिए अपनी जायदादें भी वक़्फ़ कीं. गांधी के असहयोग आंदोलन के दौर में मुसलमानों के ज़रिए वक़्फ़ की गई ज़मीनों पर अनगिनत स्कूल, कॉलेज और संस्थान खोले गए. देश के युवाओं की बेहतर शिक्षा व प्रशिक्षण और धार्मिक जागरूकता के लिए मस्जिदों व मदरसों की स्थापना के साथ-साथ मुसलमानों ने कुछ ऐसे वक़्फ़ भी क़ायम किए, जिनकी आमदनी आज़ादी के मुजाहिदीन पर खर्च की जाती थीं. आज भी कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का कार्यालय मुसलमानों को समर्पित भूमि पर स्थापित है. मिसाल के तौर पर पटना का सदाक़त आश्रम मौलाना मज़हरूल हक़ की वक़्फ़ की गई ज़मीन पर क़ायम है. 

बता दें कि भारत में वक्फ़ कानून के इतिहास की शुरुआत की कहानी 1810 से मिलनी शुरू होती है. इससे पहले वक़्फ़ की संपत्तियों की निगरानी सरकार द्वारा नियुक्त काज़ी किया करते थे. कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, जब औक़ाफ़ की हालत बदतर होने लगी, तो फोर्ट विलियम कलकत्ता के अधीन क्षेत्रों के लिए एक क़ानून सन् 1810 में पारित हुआ. 1817 में एक ऐसा ही क़ानून फोर्ट सेंट जॉर्ज, मद्रास के तहत आने वाले क्षेत्रों में भी लागू किया गया. 1818 में एक क़ानून पास हुआ, जिसके ज़रिए वक़्फ़ संपत्तियों की निगरानी बोर्ड ऑफ रिविन्यू और बोर्ड ऑफ़ कमिश्नर्स को दे दी गई. 1863 में पिछले सभी क़ानूनों को निरस्त कर दिया गया, और धार्मिक वक़्फ़ को मतवल्लियों को सौंप दी गई, बाक़ी वक़्फ़ की संपत्ति सरकार की ही निगरानी में बनी रही. वास्तव में इस क़ानून के द्वारा धार्मिक वक़्फ़ और चैरिटेबल वक़्फ़ के दरम्यान फ़र्क़ पैदा किया गया. 1890 में, चैरिटेबल वक़्फ़ की संपत्तियों के लिए ‘टैरिटेबल इंडाउमेंट एक्ट’ के तहत, वक़्फ़ की संपत्तियों को ट्रस्ट के रूप में माना गया, जिसकी वजह से उनके सतत रखरखाव की अवधारणा समाप्त हो गया.

इस तरह से ब्रिटिश हुकूमत के दौर में वक़्फ़ की तबाही का सिलसिला शुरू हुआ, इन्हें न सिर्फ़ व्यक्तिगत संपत्ति की तरह बेचा और हस्तांतरित किया जाने लगा, बल्कि अंग्रेज़ों ने एक पॉलिसी के तहत इनको ख़त्म और हड़पना शुरू कर दिया. इससे पहले 1873 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने ‘वक़्फ़ अलल औलाद’ के ख़िलाफ़ एक फ़ैसला सुनाया जा चुका था. 1894 में प्रिव्यू काउंसिल ने इस फ़ैसले को स्वीकार भी कर लिया. लेकिन कलकत्ता हाई कोर्ट में जब दोबारा एक ऐसा ही मामला पेश हुआ तो जस्टिस अमीर अली ने वक़्फ़ बिल की हिमायत में फ़ैसला दिया, लेकिन इनके साथी अंग्रेज़ जजों ने इनके इस फैसले का विरोध किया. कहा जाता है कि असल में अंग्रेज़ जजों के इस विरोध के बाद ही मुल्क में वक़्फ़ बिल के लिए एक माहौल तैयार हुआ और इस बिल को लेकर मुसलमानों में बेचैनी बढ़ने लगी. 

साल 1925 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. शफ़ाअत अहमद खान की बदायूं के निज़ामी प्रेस से उर्दू में प्रकाशित किताब ‘मम्लिकत-ए-हिन्द में मुस्लिम औक़ाफ़ का इंतज़ाम’ को पढ़ने से पता चलता है कि अंग्रेज़ों के दौर में उनके क़ायदे-क़ानूनों की वजह से जब वक़्फ़ की संपत्तियां ख़त्म करने की कोशिश की जाने लगी तब भारत में बज़ाब्ता तौर पर वक़्फ़ के लिए एक बेहतर क़ानून की मांग 1875 में शुरू हुई. सर सैय्यद अहमद खान ने 1875 में वक़्फ़ के तहत ‘ऑल इंडिया तालीमी कांफ्रेंस’ की स्थापना की और इस 1887 में इस कांफ्रेस की वार्षिक बैठक में भारत में वक़्फ़ से संबंधित एक संकल्प-पत्र पेश किया गया. एक ऐसा ही संकल्प-पत्र 1903 में भी इस कांफ्रेंस के ज़रिए पेश किया गया. इसके बाद से अलग-अलग रियासतों व राज्यों में वक़्फ़ बिल पेश किए गए.

1910 में भारत के मुसलमानों के हाथ एक मौका आया. बैरिस्टर सर सैयद अली इमाम को भारत सरकार के क़ानून मंत्री नियुक्त हुए. उन्होंने अपने वकील मित्रों के बीच वक़्फ़ पर चर्चा की. फिर क्या था. कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील खान बहादुर मौलवी मुहम्मद यूसुफ़ ने इंपीरियल काउंसिल में एक वक्फ़ बिल पेश किया. बता दें कि भारत में उस समय तक वक्फ़ अलल औलाद को लेकर कोई क़ानून नहीं था.

2 मार्च, 1911 को सर अली इमाम ने यह कहते हुए इस वक्फ़ बिल को आगे बढ़ाया कि, ‘मेरी राय है कि इस बिल को पेश करने के लिए मंज़ूरी दी जानी चाहिए. इस विषय पर मुस्लिम एहसास बहुत मज़बूत है. प्रिव्यू कॉसिल के इस फ़ैसले के बारे में जाना जाता है कि वो वक़्फ़ के मोहम्मडन क़ानून को ग़लत समझते हैं… मुझे इस बात की प्रबल आशंका है कि बिल को पेश करने में बाधा डालने से मुसलमानों में काफ़ी असंतोष पैदा होगा.’ इसके आगे भी सर अली इमाम ब्रिटिश हुकूमत के सामने इस बिल की हिमायत में अपनी बातें रखते रहे. आख़िरकार इंपीरियल काउंसिल ने इस वक्फ़ बिल को मंजूर किया और 7 मार्च 1913 को 'मुस्लिम वक्फ़ वैलिडेटिंग एक्ट 1913' पारित हुआ. इसके बाद से वक़्फ़ एक्ट में लगातार संशोधन होते रहे हैं. आख़िरी संशोधन साल 2013 में किया गया है. इसी वक्‍फ़ की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में है.

बता दें कि इस मामले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि वक्फ एक्ट वक्फ संपत्ति की सुरक्षा के लिए एक रेगूलेट्री क़ानून है. यदि इस कानून को निरस्त किया जाता है, तो इससे सिर्फ़ अतिक्रमणकारियों को ही लाभ होगा. वक्फ़ बोर्ड एक कानूनी इकाई है और वक़्फ़ संपत्ति का मालिक बोर्ड नहीं है. इस मामले की अगली सुनवाई 10 अक्टूबर को होनी है.

देश में कुल कितने वक्फ़ बोर्ड हैं?

देश में राज्य स्तर के कुल 32 वक़्फ़ बोर्ड हैं. इसके अलावा भारत में वक़्फ़ की संपत्तियों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय स्तर पर एक स्वायत्त निकाय के तौर पर सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल भी मौजूद है.

देश में सिर्फ़ सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड क्यों है, शिया बोर्ड क्यों नहीं? 

इस बारे में वक़्फ़ एक्ट का सेक्शन 13 (2) साफ़ तौर पर बताता है कि ‘यदि किसी राज्य में शिया औक़ाफ़ की संख्या उस राज्य में सभी औक़ाफ़ की संख्या का 15 फ़ीसद से ऊपर है या शिया औक़ाफ़ से होने वाली आमदनी उस राज्य में सभी वक़्फ़ संपत्तियों की कुल आमदनी के 15 फ़ीसद से ज़्यादा है तो वहां राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना के ज़रिए शिया औक़ाफ़ के लिए अलग से बोर्ड स्थापित कर सकेगी.’  बता दें कि फिलहाल पूरे देश में सिर्फ़ दो राज्यों में ही शिया वक़्फ़ बोर्ड अलग से मौजूद है. वो राज्य बिहार व उत्तर प्रदेश हैं.  

(अफ़रोज़ आलम साहिल एक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं)

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