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Explained : क्या है लिपुलेख दर्रे का विवाद, जिसे लेकर भारत से भिड़ने को तैयार है नेपाल?

भारत के अपने पड़ोसी देश नेपाल से आम तौर पर अच्छे संबंध रहे हैं. दोनों देशों के बीच कभी कभार छोटी-मोटी अनबन होती रहती है. लेकिन लिपुलेख दर्रे को जोड़ती हुई सड़क बनने के बाद बात थोड़ी बढ़ती दिख रही है.

8 मई, 2020 को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में 90 किलोमीटर लंबी धारचूला लिपुलेख सड़क का उद्घाटन किया. ये सड़क पिछले कई साल से बन रही थी, जिसे बना रहा था बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन. सड़क के बनने से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ का धारचुला हिमालय के लिपुलेख दर्रे से जुड़ जाएगा. धारचुला-लिपुलेख रोड के लिए बनी ये नई सड़क पिथौरागढ़-तवाघाट-घाटियाबागढ़ रूट का विस्‍तार है. नई सड़क घाटियाबागढ़ से शुरू होकर लिपुलेख दर्रे पर ख़त्म होती है जो कैलाश मानसरोवर का प्रवेश द्वार है. इस सड़क के बनने के बाद से कैलाश मानसरोवर के यात्रियों को सहूलियत हो जाएगी. अभी तक भारत के यात्री सिक्किम के नाथूला या फिर नेपाल के जरिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा तक जाते थे जिसमें तीन से चार हफ्ते का वक्त लगता था. लेकिन अब इस सड़क के बनने के बाद से कैलाश मानसरोवर यात्रा का समय घटकर एक हफ्ता रह जाएगा. इसके अलावा इस सड़क के बनने के बाद से भारतीय सेना की पहुंच भी इस इलाके में आसान हो जाएगी.

कैलाश मानसरोवर यात्रियों को होगा फायदा

भारत, नेपाल और तिब्बत के बीच जहां सीमा है, उसे कहते हैं लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल. भारत ने जो नई सड़क बनाई है वो लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल तक जाती है. भारत से जो यात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाएंगे, वो लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को पार करके लिपुलेख दर्रे के जरिए तिब्बत में दाखिल होंगे और फिर इसी रास्ते से कैलाश मानसरोवर की यात्रा करके भारत लौट आएंगे. ये सड़क बन गई है, लेकिन अब भी करीब 4 किलोमीटर लंबी सड़क बननी बाकी है, जिसके लिए कुछ पहाड़ काटे जाने हैं. 17,060 फीट की ऊंचाई पर बनी इस सड़क के बनने से दिल्ली से लिपुलेख की यात्रा महज दो दिनों में पूरी हो सकती है. ये नई सड़क पिथौरागढ़ के घटियाबाघड़ से शुरू हो रही है और लिपुलेख तक जा रही है. इससे सबसे बड़ा फायदा ये है कि अभी तक कैलाश मानसरोवर के यात्रियों को अपनी यात्रा का 80 फीसदी हिस्सा चीन में तय करना पड़ता था और महज 20 फीसदी हिस्सा भारत में होता था, वो अनुपात अब बदल जाएगा. भारतीय यात्री अब अपनी यात्रा का करीब 84 फीसदी हिस्सा भारत में तय करेंगे और 16 फीसदी हिस्सा चीन का होगा.

भारतीय सेना के लिए ज़रूरी थी ये सड़क? चीन से लगती सड़क बनाने के लिए भारत सरकार ने 1990 में ही एक प्रस्ताव रखा था. 1999 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी ने इस सड़क को बनाने की मंजूरी दी थी. लेकिन फिर मामला आगे बढ़ गया और सड़क नहीं बनी. 2017 में जब भारत का चीन के साथ डोकलाम मुद्दे पर करीब 70 दिन लंबा विवाद चला तो भारत सरकार को ये समझ आया कि सड़कें बनानी कितनी ज़रूरी है. इसके बाद 2017-18 में रक्षा मंत्रालय की स्टैंडिंग कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि देश कुछ ऐसे पड़ोसियों से घिरा है, जिनसे रिश्ते संभालने में काफी मुश्किल होती है. ऐसे में सीमावर्ती इलाके में सड़कें बनाना और विकास के कुछ काम करवाना बेहद ज़रूरी है. सड़क बनने के बाद सरकार की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि ये पहली बार होगा, जब सीमावर्ती इलाकों के गांव भी सड़क से जुड़ जाएंगे.

नेपाल की आपत्ति क्या है? 8 मई को जब भारत में इस सड़क का उद्घाटन हुआ, उसी दिन नेपाल ने इस सड़क को लेकर आपत्ति जताई. नेपाल ने कहा कि ये सड़क उसकी सीमा का उल्लंघन कर रही है. अगले ही दिन नेपाल के विदेश मंत्रालय ने काठमांडू में भारत के प्रतिनिधि को तलब किया और आपत्ति जताई. नेपाल का कहना है कि लिपुलेख दर्रे का दक्षिणी हिस्सा कालापानी क्षेत्र में आता है और कालापानी नेपाल में है. जबकि साल 1962 से ही कालापानी इलाके पर भारत का कब्जा है और नेपाल से हमेशा इसके लिए टकराव होता रहता है.

भारत ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि जब ये सड़क बन रही थी तो नेपाल ने आपत्ति क्यों नहीं जताई थी. और अब जब सड़क बनकर तैयार है, उसका उद्घाटन हो गया है तो नेपाल आपत्ति जता रहा है. भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने साफ कर दिया है कि पिथौरागढ़ में जिस सड़क का उद्घाटन हुआ है, वो पूरी तरह से भारतीय क्षेत्र में है और कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाने वाले यात्री इसी रास्ते का उपयोग करते हैं.

नेपाल के साथ 60 साल पुराना है सीमा विवाद काठमांडू का कहना है कि भारत के साथ सीमा विवाद को पहले भी कई बार उठाया जा चुका है. नवंबर, 2019 में भी जब भारत सरकार की ओर से जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद भारत का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया गया था, तब भी नेपाल ने आपत्ति जताई थी. उस वक्त नेपाल की आपत्ति ये थी कि भारत के नक्शे में कालापानी भारत का हिस्सा बताया गया है, जो भारत के उत्तराखंड राज्य में है.

भारत में इस नक्शे के जारी होने के बाद नेपाल में लोग सड़कों पर उतर आए थे. नेपाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी और विपक्षी नेपाली कांग्रेस ने भी विरोध प्रदर्शन किया था. नेपाल सरकार का कहना था कि ये भारत का एकपक्षीय फैसला है और नेपाल अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करेगा. वहीं भारत के विदेश मंत्रालय का कहना था कि नया नक्शा भारत की संप्रभु सीमाओं को बिल्कुल ठीक तरीके से दिखा रहा है. हालांकि नेपाल और भारत के बीच का ये सीमा विवाद 1960 के दशक का ही है.

1980 में भारत और नेपाल ने द्वीपक्षीय जॉइंट टेक्निकल लेवल बाउंड्री वर्किंग ग्रुप बनाया था ताकि दोनों देशों के बीच के सीमा विवाद को सुलझाया जा सके. लेकिन ये टीम भी कालापानी के विवाद को नहीं सुलझा सकी. साल 2000 में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नेपाल के प्रधानमंत्री बीपी कोइराला के बीच दिल्ली में इस मसले पर बातचीत हुई और दो साल के अंदर इस मसले पर सहमति बनाने की बात हुई. लेकिन ये सहमति नहीं बन पाई. ये सहमति अब भी नहीं बन पाई है और इसी वजह से नेपाल अब भारत को आंखे दिखा रहा है.

अंग्रेजों के जमाने में हुई थी भारत और नेपाल के बीच संधि नेपाल और भारत के बीच जो अंतरराष्ट्रीय सीमा संधि है, वो अंग्रेजों के जमाने में हुई थी. जिस कालापानी को लेकर विवाद है, वो 35 वर्ग किलोमीटर की एक ज़मीन है. साल 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच सुगौली की संधि हुई थी. तब काली नदी को ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच रखा गया था. ये नदी कालापानी से ही निकलती है.

1962 में जब भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई तो भारत ने कालापानी में आईटीबीपी के जवान तैनात कर दिए. और अब भी ये जवान वहां तैनात हैं, जिसको लेकर नेपाल आपत्ति जताता रहता है. 2016 में जब भारत और चीन के बीच लिपुलेख दर्रे के जरिए व्यापार की बात हुई थी, तब भी नेपाल ने भारत और चीन दोनों से अपना विरोध दर्ज करवाया था लेकिन दोनों में से किसी भी देश ने नेपाल की बात पर ध्यान नहीं दिया. अब जब सड़क बन गई है तो नेपाल भड़क गया है और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कह रहे हैं कि नेपाल अपने पुरखों की एक इंच ज़मीन भी छोड़ने को राजी नहीं है.

पूरे मामले में चीन की क्या भूमिका है? अगर सामान्य तौर पर देखें तो चीन की इस पूरे मामले में कोई भूमिका नहीं है. लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि नेपाल बिना चीन की मदद के भारत से भिड़ने को तैयार नहीं हो सकता है. खुद देश के थल सेना अध्यक्ष जनरल एमएन नरवणे ने बिना चीन का नाम लिए ये कहा था कि नेपाल किसी और के इशारे पर आपत्ति जता रहा है. हालांकि इस पूरे मसले पर चीन की ओर से कोई बयान नहीं आया है, लेकिन लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल से लगती सीमाओं पर चीन के इशारे पर कुछ विरोध प्रदर्शन हुए हैं. वहीं भारत की नज़र पहले से चीन पर थी और ये साफ दिख रहा था कि नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ता जा रहा है. इस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए इस साल की शुरुआत में दोनों देशों के बीच विदेश सचिव स्तर की बातचीत प्रस्तावित थी, लेकिन कोरोना की वजह से ये टल गई और अब इसने दो देशों के बीच विवाद का रूप ले लिया है.

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