Election Ink: मतदान के समय लगने वाली चुनावी स्याही में कौन सा केमिकल होता, क्योंकि ये लगने के बाद आसानी से नहीं मिटती
चुनाव आयोग चुनाव से जुड़ी सभी सामग्री को जरूरी दफ्तरों में भेजना शुरू कर चुका है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि आयोग मतदान के समय जिस स्याही का इस्तेमाल करता है, उसमें कौन सा केमिकल होता है?
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देश में लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी अंतिम चरणों में है. चुनाव आयोग चुनाव से जुड़ी सभी सामग्री को जरूरी दफ्तरों में भेजना भी लगभग शुरू कर चुका है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि मतदान के समय लगने वाली चुनावी स्याही में कौन सा केमिकल होता है. जिस कारण कुछ दिनों तक ये स्याही नहीं छूटती है. आज हम आपको बताएंगे कि चुनावी स्याही कहां और कैसे बनती है.
चुनावी स्याही
मतदान केंद्र पर मौजूद सरकारी कर्मी वोटर के वोट डालने के बाद इलेक्शन स्याही बांय हाथ की पहली उंगली पर लगाता है. इससे यह सुनिश्चित होता है कि एक व्यक्ति एक से ज्यादा बार वोट नहीं दे सकता है. बता दें कि चुनावी स्याही लगने के बाद आसानी से नहीं मिटती है. इसलिए इसे इंडेलिबल इंक भी कहते हैं. लेकिन क्या आप भी सोचते है कि इस स्याही में ऐसा क्या है, जो लगने के बाद ये आसानी से नहीं मिटती है.
कहां बनती है चुनावी स्याही?
पहले ये जानते हैं कि चुनाव में इस्तेमाल होने वाली चुनावी स्याही कहां बनती है? बता दें कि ये स्याही कर्नाटक की कंपनी मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड नाम में बनाई जाती है. इस कंपनी की स्थापना 1937 में उस समय मैसूर प्रांत के महाराज नलवाडी कृष्णराजा वडयार ने की थी. आज के वक्त देश में इलेक्शन इंक बनाने का लाइसेंस केवल इसी कंपनी के पास है. हालांकि ये ह कंपनी और भी कई तरह के पेंट बनाती है, लेकिन इसकी मुख्य पहचान चुनावी स्याही बनाने के लिए ही है.
पहली बार कब हुआ इसका इस्तेमाल
देश में पहली बार 1962 के लोकसभा चुनाव में पारदर्शिता और फर्जी वोटिंग रोकने के लिए ऊंगली पर स्याही लगाने की शुरुआत हुई थी. इसके बाद से हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इस पक्की स्याही का इस्तेमाल किया जाता है. बता दें कि इस नीले रंग की स्याही को भारतीय चुनाव में शामिल करने का श्रेय देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को जाता है. एसवीपीएल कंपनी इस चुनावी स्याही को थोक में नहीं बेचती है. केवल सरकार या चुनाव से जुड़ी एजेंसियों को ही इस स्याही की सप्लाई की जाती है.
आसानी से नहीं मिटती ये स्याही
इस चुनावी स्याही की खास बात है कि ये आसानी से मिटती नहीं है. पानी से धोने पर भी यह कुछ दिनों तक बनी रहती है. इसे बनाने का मकसद फर्जी मतदान को रोकना था. इस पहल में काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने 1952 में नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी में अमिट स्याही का फॉर्मूला इजाद किया था. इसके बाद इसे नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने पेटेंट करा लिया था.
कौनसा केमिकल होता है इस्तेमाल?
बता दें कि चुनावी स्याही बनाने के लिए सिल्वर नाइट्रेट केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है. जानकारी के मुताबिक सिल्वर नाइट्रेट इसलिए चुना गया था, क्योंकि यह पानी के संपर्क में आने के बाद काले रंग का हो जाता है और मिटता नहीं है. जब चुनाव अधिकारी वोटर की उंगली पर नीली स्याही लगाते है तो सिल्वर नाइट्रेट हमारे शरीर में मौजूद नमक के साथ मिलकर सिल्वर क्लोराइड बनाता है, जो काले रंग को होता है. वहीं सिल्वर क्लोराइड पानी में घुलता नहीं है और त्वचा से जुड़ा रहता है. इसे साबुन से भी धोया नहीं जा सकता है. वहीं रोशनी के संपर्क में आने से यह निशान और गहरा हो जाता है. वहीं ये चुनावी स्याही इतनी दमदार होती है कि उंगली पर लगने के एक सेकेंड के भीतर यह अपना निशान छोड़ देता है. क्योंकि इसमें एल्कोहल भी होती है. जिस कारण 40 सेकेंड से भी कम समय में यह सूख जाती है.
कैसे मिटती है ये स्याही
बता दें कि चुनावी स्याही का निशान तभी मिटता है, जब धीरे-धीरे त्वचा के सेल पुराने होते जाते हैं. यह स्याही आमतौर पर 2 दिन से लेकर 1 महीने तक त्वचा पर बनी रहती है. इंसान के शरीर के तापमान और वातावरण के हिसाब से स्याही के मिटने का समय अलग-अलग हो सकता है.
भारत दुनियाभर में करता है सप्लाई
बता दें कि इस स्याही का इस्तेमाल सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के 30 से ज्यादा देशों में होता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड की खास इंक 25 से ज्यादा देशों में सप्लाई की जाती है. इनमें कनाडा, घाना, नाइजीरिया, मंगोलिया, मलेशिया, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका और मालदीव शामिल हैं.
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