क्या भारत ने वाकई ठुकराई थी यूएन की परमानेंट मेंबरशिप? जान लीजिए क्या है कहानी
यूनाइटेड नेशन्स सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में भारत की स्थाई सदस्यता को लेकर कई देश सपोर्ट कर रहे हैं. तो वहीं कई देश इसका विरोध भी कर रहे हैं. जानिए भारत ने कब यूएन के सदस्य का ऑफर ठुकराया था.
अमेरिका में हुए संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन के बाद यूनाइटेड नेशन्स सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में भारत की स्थाई सदस्यता को लेकर बात और जोर पकड़ चुकी है. लेकिन कई ऐसे देश हैं, जो भारत के विरोध में खड़े हैं. चीन समेत कई देश भारत की इस सदस्यता के मिलने की राह में रोड़ा बन रहे हैं. वहीं यूएन की सुरक्षा परिषद में केवल 5 स्थायी देश हैं, जिनमें अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, चीन, फ्रांस और रूस हैं. आज हम आपको भारत का वो किस्सा बताएंगे, जब भारत ने यूएन की परमानेंट मेंबरशिप को ठुकरा दिया था.
क्या है सुरक्षा परिषद
सुरक्षा परिषद का काम पूरी दुनिया में शांति बनाए रखने और सामूहिक सुरक्षा के सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित करने का है. इसका गठन साल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय में हुआ था. इसमें स्थायी और अस्थायी सदस्य होते हैं. बता दें कि अस्थायी सदस्यों को 2 साल के लिए चुना जाता है.अस्थायी सदस्यों को चुनने की मुख्य वजह सुरक्षा परिषद में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना है. भारत कई बार इस परिषद का अस्थाई सदस्य रहा है. लेकिन भारत की दावेदारी स्थायी सदस्यता की है.
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कौन है भारत की राह का रोड़ा
सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी सदस्य देश हैं, जिसमें से 4 (अमेरिकी, यूके, फ्रांस और रूस) भारत की स्थायी सदस्यता के समर्थन में हैं, लेकिन चीन इस बात का विरोधी कर रहा है. चीन नहीं चाहता है कि इतने बड़े प्लेटफॉर्म पर भारत भी स्थायी सदस्य के रूप में शामिल हो.
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भारत को मिला था ऑफर
भारत को सन् 1950 के दशक में अमेरिका की तरफ से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का ऑफर दिया गया था. लेकिन कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने इस ऑफर को ठुकरा दिया था. कहा जाता है कि अमेरिका ने भारत की मदद के मकसद से अगस्त 1950 में सुरक्षा परिषद की सदस्यता का ऑफर दिया था. लेकिन उस वक्त पीएम नेहरु ने चिट्ठी लिखकर बताया था कि अमेरिका की तरफ से सुझाव दिया गया है कि भारत को सुरक्षा परिषद में चीन की जगह लेनी चाहिए. उन्होंने कहा था कि भारत निश्चित रूप से इसे स्वीकार नहीं कर सकता है. उन्होंने कहा कि उनका मानना था कि अगर यह प्रस्ताव स्वीकार करता है, तो फिर चीन के साथ मतभेद होंगे. ऐसे में चीन जैसे देश के लिए सुरक्षा परिषद में नहीं होना बहुत अनुचित व्यवहार होगा.
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