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Biopiracy: अमेरिका हो या यूरोप... अब नहीं चुरा पाएंगे भारतीयों का पारंपरिक ज्ञान

भारतीयों समेत उन तामाम लोगों के लिए जिनके पास अपनी सदियों पुरानी एक अलग चिकित्सा पद्धति है, 24 मई तक बायोपाइरेसी को लेकर खुशखबरी आने वाली है. जिनेवा में 13 से 24 मई के बीच इस पर बात-चीत हो रही.

फ़र्ज़ कीजिए कि एक रोज़ आप अपने आंगन में बैठ कर सिलबट्टे पर अदरक, काली मिर्च, लौंग, दाल चीनी का एक छोटा सा टुकड़ा और तुलसी के कुछ पत्ते कूंट रहे हों या पीस रहे हों...तभी वहां एक विदेशी मेहमान आए और आपसे बात करते-करते ये जान ले कि आप इन सब को कूंट कर, पानी के साथ उबाल कर एक ऐसा काढ़ा तैयार करने वाले हैं जिससे इंसान की किसी भी तरह की सर्दी, जुकाम या बुखार दूर हो जाएगी.

फिर कुछ समय बाद आपको अख़बारों या न्यूज़ चैनलों के जरिए पता चले कि जिस विदेशी को आपने अनजाने में अपने औषधीय काढ़े की जानकारी दी थी, उसने उसी आधार पर आधुनिक विज्ञान का सहारा लेकर एक दवाई बनाई और फिर उसका पेटेंट करा लिया.

जाहिर सी बात है आप ठगा हुआ महसूस करेंगे. ज्यादातर भारतीयों और उनकी चिकित्सा पद्धतियों के साथ दशकों से ऐसा ही होता आया था. हालांकि, अब ऐसा नहीं होगा. इस तरह की चीजों को रोकने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र में एक अंतरराष्ट्रीय संधि अब लगभग निश्चित हो गई है. आने वाले समय में दुनिया इसी संधि को बायोपाइरेसी कानून या बायोपाइरेसी समझौते के रूप में जानेगी.

हल्दी वाला किस्सा तो आपको याद ही होगा

दरअसल, 1994 में अमेरिका के मिसिसिपी यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चर्स सुमन दास और हरिहर कोहली को यूएस पेटेंट एंड ट्रेडमार्क ऑफिस (PTO) ने  हल्दी के एंटीसेप्टिक गुणों के लिए पेटेंट दे दिया था. भारत में जब ये बात पता चली तो इस पर खूब विवाद हुआ. लोगों ने कहा जिस हल्की का इस्तेमाल हम एक औषधि के रूप में सदियों से करते आए हैं, इसका जिक्र भारतीय आयुर्वेद में भी है. फिर उसका पेटेंट अमेरिका किसी को कैसे दे सकता है? 

जब इस पर विवाद ज्यादा बढ़ा तो भारत की काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) ने इस पर केस किया और 1997 में जा कर पीटीओ ने दोनों रिसर्चर्स का पेटेंट रद्द किया. अब इसी तरह के मुद्दों को सुलझाने के लिए और किसी के पारंपरिक ज्ञान या चिकित्सा पद्धति की चोरी ना हो इस पर रोक लगाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बायोपाइरेसी कानून या समझौता लाने की बात-चीत हो रही है.

क्या है बायोपाइरेसी?

जर्मन न्यूज वेबसाइट डी डब्लू की एक रिपोर्ट के अनुसार, बायोपाइरेसी उस ज्ञान के बिना सहमति इस्तेमाल को कहा जाता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के बीच आगे बढ़ता है. इसे आप किसी पौधे या फसल के औषधीय गुणों की जानकारी और इस्तेमाल या फिर किसी जानवर की प्रजाति के इस्तेमाल से भी जोड़ सकते हैं. बायोपाइरेसी समझौते या कानून के जरिए इस तरह के नियम बनाने की कोशिश की जा रही है कि इस तरह के ज्ञान के आधार पर कोई भी किसी तरह की खोज को बिना उस समुदाय की सहमति के पेटेंट ना करा पाए.

पौधे की बात आई तो आपको बता दें कि साल 1995 में एक केमिकल कंपनी डब्लू आर ग्रेस ने नीम के गुणों को लेकर कई पेटेंट करा लिए थे. जबकि भारत में नीम के कई औषधीय गुणों का इस्तेमाल सदियों से होता आ रहा है. बाद में इसी के आधार पर लगभग दस साल तक चले संघर्ष के बाद यूरोपीय पेटेंटे ऑफिस ने बायोपाइरेसी को आधार मानकर नीम पर दर्ज तमाम पेटेंट खारिज कर दिया था.

13 से 24 मई है खास

भारतीयों समेत उन तामाम लोगों के लिए जिनके पास अपनी सदियों पुरानी एक अलग चिकित्सा पद्धति है, 24 मई तक बायोपाइरेसी को लेकर खुशखबरी आने वाली है. दरअसल, जिनेवा में 13 मई से लेकर 24 मई के बीच एक राजनयिक सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इस आयोजन का लक्ष्य होगा पारंपरिक ज्ञान को लुटने से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून बनाना या फिर एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय समझौता करना जो पेटेंट व्यवस्था में ज्यादा पारदर्शिता ला सके.

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