पॉलीग्राफ के बाद अब कोलकाता रेप कांड के आरोपी का होगा नार्को टेस्ट ?, जानें दोनों में क्या है अंतर
कोलकाता रेप-मर्डर केस के मुख्य आरोपी संजय रॉय की नार्को टेस्ट कराने से इंकार कर दिया है. क्या आप जानते हैं कि नार्को टेस्ट और पॉलीग्राफ टेस्ट में क्या अंतर होता है. जिससे आरोपी डर रहा है.
सीबीआई ने कोलकाता रेप-मर्डर केस के मुख्य आरोपी संजय रॉय की नार्को टेस्ट कराने की मांग की है. लेकिन मुख्य आरोपी संजय रॉय ने इसके लिए सहमति नहीं दी है. बता दें कि बिना आरोपी के सहमति के ये टेस्ट नहीं कराया जा सकता है. क्या आप जानते हैं कि पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट में क्या अंतर होता है. आज हम आपको पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट के बारे में बताएंगे.
कोलकाता रेप केस
कोलकाता रेप-मर्डर केस के मुख्य आरोपी संजय रॉय ने नार्को टेस्ट कराने से इंकार कर दिया है. गौरतलब है कि आरोपी का इससे पहले पॉलीग्राफ टेस्ट हो चुका है. बता दें कि सीबीआई ने आरोपी के नार्को टेस्ट के लिए कोलकाता की एक अदालत में याचिका दाखिल की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है. इस याचिका में संजय रॉय का नार्को टेस्ट कराने की मांग की गई थी. बता दें कि इससे पहले 25 अगस्त को संजय रॉय का पॉलीग्राफ टेस्ट किया गया था.
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पॉलीग्राफ टेस्ट
अब सवाल ये है कि पॉलीग्राफी टेस्ट क्या होता है. बता दें कि इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति की जांच के दौरान ब्लड प्रेशर, नाड़ी, श्वसन और त्वचा जैसे कई शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मापा और रिकॉर्ड किया जाता है. माना जाता है कि किसी व्यक्ति की शारीरिक प्रतिक्रियाएँ झूठ बोलने पर रिकॉर्ड की गई प्रतिक्रियाओं से भिन्न होती हैं. प्रत्येक प्रतिक्रिया को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है, जो यह निष्कर्ष निकालता है कि कोई व्यक्ति सच कह रहा या झूठ बोल रहा है. हालांकि कोर्ट में इसकी रिपोर्ट मान्य नहीं होती है. लेकिन जांच एजेंसी को इससे जांच करने में आसानी होती है.
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नार्को एनालिसिस टेस्ट
इस जांच में सोडियम पेंटोथल जिसे 'ट्रुथ सीरम' के रूप में भी जाना जाता है, इसे व्यक्ति में एक कृत्रिम निद्रावस्था की स्थिति उत्पन्न करने और कल्पना को निष्क्रिय करने के लिए इंजेक्ट किया जाता है. जानकारी के मुताबिक ऐसा करने से मन की बेहोश अवस्था में व्यक्ति सच बोलता है. इस दवा का उपयोग सर्जरी के दौरान एनेस्थीसिया के रूप में उच्च खुराक में किया जाता है. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जाता है कि नार्को एनालिसिस टेस्ट का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जानकारी हासिल करने के लिए किया गया था. टेस्ट मनोचिकित्सक की निगरानी में होता है और उससे घटना से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं. माना जाता है कि हिप्नोटिक स्थिति में होने के कारण आरोपी झूठ नहीं बोलता है.
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