दिल्ली एनसीआर के आसमान में अभी आपको धुंध के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देगा. ये प्रदूषण इतना खतरनाक है कि इसकी वजह से दिल्ली वाले घुट-घुट कर मर रहे हैं. स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि रात को चांद और दिन में सूरज भी अब इस प्रदूषण की वजह से धुंधला दिखाई देने लगा है. हालांकि, अगर सरकार और जिम्मेदार संस्थाएं चाहें तो दिल्ली वालों को क्लाउड सीडिंग के जरिए इस मूसीबत से कुछ समय के लिए छुटकारा दिला सकती है. चलिए जानते हैं कि आखिर ये क्लाउड सीडिंग होती क्या है और इसका खर्च कितना आता है? इसके साथ ही ये भी जानेंगे कि क्या भारत में आज से पहले कभी इस तरह का प्रयोग किया गया है.


क्लाउड सीडिंग क्या होती है?


क्लाउड सीडिंग यानी बादल के बीज बोना. जैसे खेत में फसल के लिए बीज बोए जाते हैं, वैसे ही बारिश कराने के लिए आसमान में क्लाउड सीडिंग की जाती है. यानि बारिश वाले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं. आसान भाषा में आपको समझाएं तो वैज्ञानिक धरती पर लैब में कुछ केमिकल तैयार करते हैं और उन्हें एयरक्राफ्ट की मदद से आसमान में छिड़क देते हैं. जैसे ही ये केमिकल आसमान में रिलीज होते हैं उनमें एक रिएक्शन होने लगता है, जिसकी वजह से आकाश में बादल बनने लगते हैं. फिर इन्हीं बादलों से बाद में बारिश भी होती है.


वैज्ञानिकों ने क्लाउड सीडिंग का इजाद सूखे, प्रदूषण या फिर भीषण आग से निपटने के लिए किया था. अब तक चीन और अमेरिका  जैसे बड़े देश इसका सफलता से इस्तेमाल कर चुके हैं. वहीं पिछले साल गरमी से तपते संयुक्त अरब अमीरात ने इसके जरिए बादलों को इलेक्ट्रिक चार्ज करके अपने यहां आर्टिफिशियल बारिश कराई थी. भारत में भी ये कई जगह हो चुका है.


भारत में कहां-कहां हुआ है क्लाउड सीडिंग


अभी दस दिन पहले ही महाराष्ट्र के सोलापुर में क्लाउड सीडिंग की गई. ऐसा करने से इस इलाके में आम बारिश से 18 फीसदी ज्यादा बारिश हुई. इस पर अमेरिकन मौसम विज्ञान सोसाइटी के बुलेटिन में रिसर्च भी छापी गई. इस रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, 'पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटेओरोलॉजी और अन्य संस्थान के वैज्ञानिकों ने पाया कि सोलापुर के 100 वर्ग किलो मीटर के इलाके में हाइग्रोस्कोपिक क्लाउड सीडिंग ने बारिश को बढ़ा दिया.' इससे पहले कानपुर आईआईटी के शोधकर्ताओं ने भी सफलता पूर्वक क्लाउड सीडिंग कराई थी. कर्नाटक सरकार ने 2019 में तो इसमें होने वाले खर्च का ब्योरा भी दिया था.


क्लाउड सीडिंग वाला केमिकल तैयार कैसे होता है


क्लाउड सीडिंग कराने में इसके केमिकल का बहुत बड़ा योगदान होता है. जितना अच्छा केमिकल होगा उतनी ही अच्छी बारिश होगी. आपको बता दें क्लाउड सीडिंग के लिए जो केमिकल बनाया जाता है उसे सूखी बर्फ, नमक, सिल्वर आयोडाइड समेत कई और रासायनिक तत्वों को मिलाकर तैयार किया जाता है. फिर इसे एयरक्राफ्ट में लगे एक खास टूल में रखा जाता है और इसी की मदद से आसमान में क्लाउड सीडिंग की जाती है.


क्लाउड सीडिंग में खर्च कितना आता है?


इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 में कर्नाटक की राज्य सरकार ने प्री-मॉनसून क्लाउड सीडिंग के लिए एक अहम फैसला लिया था. इस फैसले में राज्य की कैबिनेट ने पूरे दो साल के लिए क्लाउड सीडिंग कराने की बात की थी. वहीं इसमें आने वाले खर्च की बात करें तो इसके लिए स्टेट कैबिनेट ने 89 करोड़ रुपये के खर्च की मंजूरी दी थी. जबकि, 2012 में ये खर्च मात्र 4.80 करोड़ रुपये था.


दिल्ली एनसीआर में क्लाउड सीडिंग का खर्च


दिल्ली एनसीआर छोड़िए सिर्फ दिल्ली की बात करें तो इसका क्षेत्रफल 1,483 किलोमीटर स्क्वायर है. इसमें दिल्ली की लंबाई 51.90 किलोमीटर है और चौड़ाई 48.48 किलोमीटर. यानी अगर पूरे दिल्ली में क्लाउड सीडिंग के जरिए बारिश करानी पड़ी तो खर्च इतना आएगा कि आप सोच भी नहीं सकते. हिंदुस्तान की एक रिपोर्ट के मुताबिक, क्लाउड सीडिंग के जरिए एक वर्ग फुट बारिश कराने की कीमत लगभग 15 हजार रुपये होगी.


जबकि, अरेबियन बिजनेस डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यूएई में जब क्लाउड सीडिंग के जरिए बारिश कराई गई थी तो उसकी लागत एक क्यूबिक मीटर पानी के लिए एक डॉलर आई थी. जबकि, द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर भारत में क्लाउड सीडिंग के जरिए बारिश कराई जाए तो एक लीटर पानी के लिए 18 पैसा खर्च करना पड़ सकता है.


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