Firecrackers Pollution: रोशनी का त्योहार दिवाली दुनिया भर में लाखों लोगों द्वारा बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है. हालांकि, इस उत्सव के अवसर पर पटाखे फोड़ने की पारंपरिक प्रथा ने इसके पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में चिंताएं बढ़ा दी हैं. 2023 में दिवाली 12 नवंबर को है और पटाखों से होने वाले वायु प्रदूषण की समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र में अभी से पॉल्यूशन अपने चरम पर पहुंच गया है. 


ये पदार्थ करते हैं प्रदूषण के साथ खेल


पटाखों से निकलने वाले रसायन और विषाक्त पदार्थ, जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर, वायु की गुणवत्ता और मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकते हैं. ये प्रदूषक श्वसन संबंधी समस्याओं को बढ़ा सकते हैं, विशेषकर बच्चों और बुजुर्गों में. इसके अतिरिक्त, वे धुंध के निर्माण, विजिबिलिटी को कम करने और वायु गुणवत्ता को और खराब करने में योगदान करते हैं.


ऐसे किया जाता है इसे तैयार


आतिशबाजी बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले पाउडर में पोटेशियम परक्लोरेट, बेरियम नाइट्रेट, पर्लाइट पाउडर, मैग्नीशियम-एल्यूमीनियम मिश्रण, एल्यूमीनियम पाउडर, टाइटेनियम पाउडर, ब्रिमस्टोन, कैल्शियम क्लोराइड, सोडियम नाइट्रेट, बेरियम क्लोराइड, कॉपर क्लोराइड और बहुत कुछ शामिल हैं. आतिशबाजी में जो हरा रंग आप देखते हैं, वह बेरियम की उपस्थिति के कारण होता है, जबकि नीला रंग तांबे का परिणाम होता है, और नारंगी रंग कैल्शियम की मदद से बनता है. यह सभी हवा को प्रदूषित करने का काम करते हैं. 


काफी पुराना है इतिहास


भारत में आतिशबाजी का एक लंबा इतिहास है, जो कई सदियों पुराना है. भारत में 15वीं शताब्दी की पेंटिंग और मूर्तियां पटाखों को दर्शाती हैं. महाभारत काल में भी आतिशबाजी का उल्लेख मिलता है. ऐसा ही एक संदर्भ भगवान कृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में मिलता है, जहां आतिशबाजी का उल्लेख किया गया है. बारूद और आतिशबाजी के आविष्कार का श्रेय अक्सर चीनी सैनिकों को दिया जाता है, जिन्होंने बांस में बारूद भरकर विस्फोटक उपकरण बनाए. इन शुरुआती आतिशबाजी का उपयोग तेज़ आवाज़ उत्पन्न करने के लिए किया जाता था, जिसका उपयोग शोर से दुश्मनों को डराने के लिए किया जा सकता था.


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