भारत में दिवाली का त्यौहार अलग अलग तरह से सेलिब्रेट किया जाता है. यहां तक कि भारत के बाहर भी लोग रोशनी के इस पर्व को मनाते हैं. भारत में जब मुगलों का दौर था, उस वक्त भी दिवाली के इस खास त्योहार को मनाया जाता था. हालांकि, जब अकबर जैसे मुगल बादशाहों के शासन या दरबार में दिवाली मनाई जाती थी तो उसका तरीका थोड़ा अलग होता था. यहां तक कि दिवाली को अलग नाम से जाना जाता था. ऐसे में आज हम आपको दिवाली के मौके पर बताते हैं कि उस वक्त दिवाली के लिए क्या नाम इस्तेमाल किया जाता था और इस त्योहार को कैसे सेलिब्रेट किया जाता था.


दिवाली को क्या कहते थे?


मुगलकाल में दिवाली को आज की तरह ही दीपक और पटाखों के जरिए सेलिब्रेट किय जाता था और उस दौर में मुगल शासक इस फेस्टिवल को 'जश्न-ए-चिरागां' के नाम से जानते थे. साथ ही राज दरबारों से लेकर आम जनता तक इस त्योहार को अच्छे से सेलिब्रेट किया जाता था. 


कैसे मनाई जाती थी दिवाली?


मुगल काल के दौर की बात करें तो आम जनता को आज की तरह ही दिवाली मनाती थी, लेकिन राज दरबारों में भी इसका काफी उत्साह रहता था. लाल किले के रंग महल में दिवाली की खास व्यवस्था की थी जाती थी और दीपक जलाए जाते थे. इसके साथ ही मुगल बादशाह को सोने और चांदी से तोला जाता था और फिर उस जेवरात को जनता में ही बांट दिया जाता था.


ये भी कहा जाता है कि कुछ मुगल महिलाएं रोशनी और आतिशबाजी देखने के लिए कुतुब मीनार की चोटी पर चढ़ जाती थीं, इसके बाद आज पास में आतिशबाजी करवाई जाती थी. उस वक्त पटाखों की जगह आकाश दीया आदि का इस्तेमाल किया जाता था, जो काफी ऊपर रस्सियों के जरिए ऊपर जलाया जाता था और इसके साथ ही मुगल दरबार को अलग अलग दियों से कपाल के तेल के जरिए रौशन किया जाता था.


आकाश दिया शहर के बीच में काफी ऊपर लगाया जाता था, जैसे चांदनी चौक पर एक दिया लगाया जाता था और कई अमीर सेठ भी इस दौरान गलियों में डेकोरेशन करवाते थे. 


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