भारत के इस गांव में लगता है दूल्हों का बाज़ार, लगाई जाती है बोली
इस बाजार का नाम है सौराठ सभा. यह बिहार के मधुबनी में हर साल लगता है. यह बाजार जून से जुलाई के महीने में लगता है, जहां शादी करने योग्य लड़के-लड़कियां आते हैं.
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भारतीय परंपरा में शादी एक त्योहार की तरह होती है, जिसमें पूरा परिवार और रिश्तेदार इकट्ठा होते हैं. यहां हर राज्य में अलग-अलग तरह से शादियां होती हैं. लेकिन अगर हम आपको कहें कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कोई एक ऐसी जगह है जहां दूल्हों का बाजार लगता है तो आप क्या सोचेंगे. यह कोई मजाक नहीं है, बल्कि सच है. भारत के बिहार राज्य के मधुबनी जिले में एक ऐसा ही बाजार सजता है, जहां दूल्हे बिकने के लिए खड़े रहते हैं. लड़की वाले आते हैं और उनकी बोली लगाकर उनसे अपनी बेटी की शादी करते हैं. यह बाजार दशकों से लगता रहा है और यहां के लोग इसे एक परंपरा की तरह निभाते हैं.
क्या है इस बाजार का नाम
इस बाजार का नाम है सौराठ सभा. यह बिहार के मधुबनी में हर साल लगता है. यह बाजार जून से जुलाई के महीने में लगता है, जहां शादी करने योग्य लड़के लड़कियां आते हैं. इस बाजार में दूल्हा खड़ा हो जाता है और लड़की वाले उससे उसका क्वालिफिकेशन उसका घर परिवार और उसकी आमदनी पूछते हैं. जिसके बाद वह तय करते हैं कि उन्हें दूल्हे को पसंद करना है या फिर इसके लिए बोली लगानी है या नहीं. अगर उन्हें लड़का पसंद आता है तो वह उस पर एक गमछा डाल देते हैं और सबको मालूम चल जाता है कि दूल्हा उन्होंने सेलेक्ट कर लिया है.
सारी जिम्मेदारी पुरुष सदस्यों की होती है
इस बाजार में मुख्य भूमिका पुरुषों की होती है. पुरुष ही यहां अपनी लड़की के लिए दूल्हे का चयन करते हैं और उसके बाद दोनों परिवारों के पुरुष ही आपस में बातचीत कर यह तय करते हैं कि इस शादी में कितना खर्च होगा और लड़की वालों को लड़के वालों को क्या दहेज या गिफ्ट देना होगा. लड़की वाले शादी में कितना पैसा खर्च करेंगे वह उस बात से तय होता है कि लड़का क्या करता है और कितना कमाता है.
कई सौ साल से चली आ रही है परंपरा
दूल्हों का यह बाजार जिसे सौराठ सभा कहते हैं, आज से नहीं लग रहा है. बल्कि यह पिछले 700 सालों से चलता आ रहा है. इसकी शुरुआत कर्नाट वंश के राजा हरि सिंह ने की थी. उन्होंने ऐसा इसलिए शुरू किया था ताकि वह अलग-अलग गोत्र में लोगों की शादी करवा सकें और इन शादियों में तब दहेज की भी कोई प्रथा नहीं थी. हालांकि, बदलते समाज ने शादियों की इस परंपरा को भले ही जारी रखा लेकिन अपनी सुविधा अनुसार इसमें दहेज जरूर जोड़ दिया.
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