अनगिनत चुनौतियों से जूझते लोकतंत्र के प्रहरी, चेतावनी और चिंता की गहरी होती लकीर
26 नवंबर का दिन संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है. आजकल संवैधानिक शासन के समक्ष कई प्रश्नों ने आंदोलन का स्वरूप ले लिया है जिनके समाधान की जरूरत है.
मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी अर्थात् 26 नवंबर 1949 ई० को दृढसंकल्पित होकर हमने संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था जिसे वर्ष दर वर्ष जीवंतता प्रदान की गई हालांकि प्रारंभ में संविधान में .395 अनुच्छेद थे किंतु एक के बाद एक संशोधनों के क्रम में वर्तमान में 470 अनुच्छेद, 25 भाग एवं 12 अनुसूचियां विद्यमान है यहां एक तथ्य को स्पष्ट कर देना बेहतर होगा कि अनुच्छेद एवं भागों की संख्या में 'अ', 'ब' 'स' आदि करके बढ़ोतरी की गई जिनकी संख्या यहाँ 470 एवं 25 भाग दी गई है उसी प्रकार अनुसूचियां भी 9(A), 9(B) एवं 11 व 12वीं के रूप में जोड़ी गई हैं.
आज 26 नवंबर 2022 को हम पुनः उन्हीं क्षणों को एक बार फिर जीवंतता प्रदान करना चाहते है जिन्हें हृदय में सजोकर भारतीय संविधान से हम बंधे थे आज संविधान दिवस के आलोक में हम अपनी लोकतंत्र की यात्रा में उन उतार-चढ़ावों की चर्चा करेंगे जोकि कभी विधि के सारवान प्रश्न (Substential question of law) के रूप में न्यायपालिका के समझ समक्ष खड़ा होता है तो कभी 'संवैधानिक सर्वोच्चता' वनस्पत 'संसद की सर्वोच्चता' के रूप में एक कदम आगे की चुनौती पेश करता है. ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न हैं जो इस संवैधानिक यात्रा के क्रम में गढ़े गए कुछ के जवाब मिले, कुल अनसुलझे रह गए और इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि प्रश्नों को सशरीर दफना भी दिया गया.लेकिन आज मैं भरपूर प्रयत्न करूंगा कि कुछ अनसुलझे प्रश्नों और कुछ ज़मींदोज़ सवालों को फिर से खड़ा कर सकूं और जिनका हल ढूंढने की आवश्यकता है.
भारतीय संविधान उधार का गट्ठर ?
भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक बड़ा दस्तावेज 'है जिसमें लगभग 1.46 लाख शब्द हैं. सर्वप्रथम संविधान का विचार M.N. Roy द्वारा 1934 में प्रस्तावित किया गया था जोकि 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अपने मुख्य उद्देश्य के तौर पर सम्मिलित कर लिया गया हालांकि भारतीय संविधान को अमली जामा पहनाने का कार्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किया गया. डां. अम्बेडकर एक प्रख्यात कानूनविद् होने के साथ ही एक नितांत उच्च कोटि के समाज सुधारक के तौर पर भी हमारे सामने के आते है. उन्होंने एक समतामूलक समाज की संकल्पना पर जोर दिया है संविधान बनाने के क्रम में उन्होंने 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन की कड़ी मेहनत की. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने संविधान के संदर्भ में बड़ी तीखी बात बोलते हुए यह तक कह दिया था कि - " मैं इस संविधान को जला देना चाहता हूँ क्योंकि इसमें अल्पसंख्यक एवं वंचित वर्गों को पर्याप्त संरक्षण प्रदान नहीं किया गया है" हालांकि बाद में कुछ संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से यह संरक्षण देने का प्रयास किया गया. भारतीय संविधान का प्रारूप बहुत हद तक भारत सरकार अधिनियम - 1935 से मिलता है. जहां से बहुत से प्रावधानों को उठाकर भारतीय संविधान में लागू किया गया था.
एक प्रश्न यह भी मुखरित होता है कि 'भारतीय संविधान उधार का एक गट्ठर है' क्योंकि इसमें अलग-अलग देशों के संविधान से अलग-अलग उपबंधों को जोड़ा गया है ब्रिटेन के संविधान से ' विधि का शासन जैसे एकल नागरिकता', 'संसदीय ढांचा' आदि लिया गया. वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका से ' न्यायिक पुनरीक्षण ', ' राष्ट्रपति पर अभियोग' , 'मूल अधिकार' 'उद्देशिका' से सम्बंधित कुछ शब्द यथा धर्म पंथनिरपेक्षता और सोवियत संघ से 'मौलिक कर्तव्य' व न्याय की अवधारणा (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ में) व कनाडा से संघीय शासन व अवशिष्ट शक्तियों का केन्द्र में निहित होना. यह धारा केवल इन देशों से लिए गए तत्वों पर ही नहीं रुकती है बल्कि जर्मनी से 'भूल अधिकारों का सस्पेंशन', जापान से 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' आयरलैंड से नीति निर्देशक तत्वों की अवधारणा से होते हुए फ्रांस से स्वतंत्रता के व्यापक सिद्धांत अर्थात विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म की स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व को भी स्वयं में समाप्ति करती है. ऐसे और भी तथ्य हैं जोकि अन्य कहीं से तादात्म्य रखते हैं किंतु सभी क्रमवार विश्लेषण करना उचित नहीं होगा. इसलिए मुख्य तथ्यों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है लेकिन यह आक्षेप लगाना कि भारतीय संविधान उधार का संविधान है कहना गलत होगा. क्योंकि उपर्युक्त अवधारणाओं को भारतीय संविधान में बिल्कुल ज्यों का त्यों नहीं अपनाया गया बल्कि भारतीय परिस्थितियों को मूल में रखकर उन्हें ढाला गया और अपनाया गया.
उदाहरण के तौर पर ब्रिटेन से 'संसदीय सर्वोच्चता' को न अपनाकर केवल 'संसदीय प्रणाली' को अपनाया गया वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका के 'न्यायिक पुनरीक्षण' को भी भारतीय संदर्भ में सीमित रखा गया है. अतएव समकालीन प्रबुद्ध विचारों, सिद्धांतो आदि जो कि समाज को गतिशील बनाने के लिए व्यवहार्य सिद्ध हो सके उनसे दूर रहना घातक सिद्ध होता. यदि भारतीय संविधान में अलग-अलग देशों की संवैधानिक आदर्शों को शामिल गया है तो यह एक प्रबुद्ध कदम तौर पर व्याख्यायित किया जाना चाहिए . हमने उपर्युक्त प्रश्न पर सर्वप्रथम चर्चा इसलिए की क्योंकि आज भी विद्वानों के बीच मतैक्य नहीं है कि भारतीय संविधान एक मौलिक दस्तावेज है अपितु यह 'उधार का थैला है'.अब हम ऐसे प्रश्नों पर बात करने के लिए उत्सुक है जो नितांत बहस का मुद्दा बने हुए है.
संवैधानिक नैतिकता का मुद्दा -
आजकल संवैधानिक नैतिकता एक ज्वलंत बहस का मुद्दा है. 'संवैधानिक नैतिकता' में भारत के संविधान की उद्देशिका से लेकर मूल अधिकार, केन्द्र-राज्य संबंध व न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सभी आदर्शों को समाहित किया गया है. अतएव जनता के हित में प्रशासनिक तंत्र हो या विधायिका सभी से अपेक्षा की जाती है कि इन आदर्शों को धरातलीय स्वरूप प्रदान किया जाए. इसी बात को यदि हम और आगे बढ़ाते हैं तो एक और अवधारणा 'न्यायिक सक्रियतावाद' जन्म लेती है, जिसमें न्यायपालिका द्वारा स्वत्वमूलक (Suo Moto) आधार पर जनता के हितों से सम्बन्धित मुद्दों को उठाया जाता है एवं उनका समाधान किए जाने का प्रयास किया जाता है.
हालांकि कभी-कभी यह सक्रियता आलोचना का भी विषय बनती है जिसमें न्यायपालिका द्वारा अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर एक अनचाहे अतिक्रमण को अपनाया जाता है. यानी कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्रों में स्वयं की पहुंच स्थापित करने की कोशिश की जाती है. हालांकि यह जरूरी भी है लेकिन इसकी अति का समग्रता समाधान किया जाना भी जरूरी है. क्योंकि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 50 'शक्ति के पृथक्करण' की बात करता है. इसलिए इस बार संविधान दिवस पर यह संकल्पित किया जाना चाहिए कि न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका परस्पर समन्वय को बेहतर बनाएं ताकि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र,विश्व का सबसे महान लोकतंत्र बन सके.
अनगिनत प्रश्न और उनके समाधान की जरूरत
इसके साथ ही आजकल संवैधानिक शासन के समक्ष कई प्रश्नों ने आंदोलन का स्वरूप ले लिया है जैसे- अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन विधेयक, इलेक्टॉरल बॉण्ड, UAPA, किसान अधिनियम, आई टी एक्ट- 2000 और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण. अनु: 370 में किए जाने वाले आमूल-चूल परिवर्तन के द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य के क्षेत्र को एक केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाया गया. हालांकि प्रारंभ में भी जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग था. लेकिन अब प्रशासनिक कठिनाइयों एवं अतिवादिता का समाधान ढूंढने के क्रम में केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में शासन को जनता अभिमुख किया जा रहा है. अभी भी दुर्गम जलवायवीय परिस्थिति एवं स्थलाकृतिक भिन्नता के चलते बहुत से समाधान किए जाने शेष हैं.
इसी क्रम में नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के द्वारा भी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू, सिख, जैन, पारसी और ईसाइयों से सम्बन्धित नागरिकता प्रावधानों को संशोधित किया गया है. हालांकि इस अधिनियम से संबंधित अफवाहों द्वारा मुस्लिम वर्ग को अप्रत्याशित रूप से भयभीत करने की कोशिश की गई. परिणाम यह हुआ कि देशव्यापी हिंसक आंदोलनों का क्रम चलने लगा.कहीं-कहीं हिंसक गतिविधियां इस स्तर तक बढ़ गई कि प्रशासन को मजबूरन लाठीचार्ज, आंसू गैस का प्रयोग इत्यादि भी करना पड़ा. हालांकि अभी भी इस मुद्दे पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई है. बल्कि नागरिकता संशोधन अधिनियम को NRC से जोड़कर एक और आयाम देने की कोशिश की गई. जिसने मुख्यतः बांग्लादेश से सटे भारतीय क्षेत्रों में एक भय और आशंका का वातावरण पैदा कर दिया.
जरूरी है कि लोकतंत्रात्मक गरिमा को बनाए रखने के लिए सरकार व जनता के मध्य संवाद को बेहतर किया जाना चाहिए ताकि असामाजिक तत्वों द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक शांति को भंग न किया जा सके, न ही इन मुद्दों को ढाल बनाकर जनता का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा सके. जिसके द्वारा अपराध का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण दोनों पर लगाम कसी जा सकती है. ऐसा ही एक और ज्वलंत मुद्दा किसानों से सम्बन्धित तीन अधिनियमों को लागू करने के बाद आया. इस विषय पर हम चर्चा इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि सरकार द्वारा तीनों ही अधिनियमों को वापस ले लिया गया है,लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि जनता द्वारा सरकार पर दवाब बनाने के क्रम में एक बार फिर नैतिक अनैतिक और हिंसा- अहिंसा जैसे न जाने कितने मानवीय तर्कों को दरकिनार कर दिया गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि लम्बे समय तक चालन - परिचालन, दैनिक कार्य-कलाप भी दुरूह हो गए. साथ ही आर्थिक व्यवस्था भी ठप्प पड़ने लगी. भविष्य में ऐसे घटनाक्रम पुनः न पैदा हो इसके लिए कृषि कानून सरीखे व्यापक रूप से प्रभावी संशोधन करने से पूर्व सरकार-जनता के मध्य संवाद के साथ 'संवैधानिक नैतिकता' का पालन किया जाना चाहिए.
उपर्युक्त मुद्दों से इतर यदि हम राजनीतिक पार्टियों को चुनाव लड़ने हेतु फंडिंग के संदर्भ में बात करते हैं तो जो एक और मुद्दा उभरकर सामने आता है. वह है 'इलेक्टोरल बॉन्ड . इलेक्ट्रॉल बॉण्ड को यह सोचकर अपनाया गया था कि राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त होने वाली फंडिंग पर निगरानी रखी जा सके साथ ही यह औपचारिक रूप से डिजिटल रूप से राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त हो. जिसे 1000, 10,000 से लेकर 1 करोड़ में विभक्त किया गया. यह केवल उन राजनीतिक पार्टियों के लिए है जो कि प्रतिनिधित्व अधिनियम - 1951 की धारा( 29A) के तहत पंजीकृत हैं. साथ ही इन दलों को पिछले चुनाव में कम से कम 4% मतों की प्राप्ति होनी अनिवार्य है. इन इलेक्टोरल बॉन्ड को 15 दिनों के भीतर कैश करवाना अनिवार्य है. तमाम तकनीकी पेचीदगियों के चलते इसका महत्व ऊंट के मुंह में जीरा जितना ही रह जाता है.
निष्कर्षत ऐसे कई मुद्दे हैं हैं जिनका अब एक बेहतर समाधान किया जाना बेहद आवश्यक है.जिससे आने वाले समय में क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, बाहरी असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण, शक्ति का पृथक्करण, आदि सभी मुद्दों,विवादों और चुनौतियों को समझाया जा सके. हालांकि किसी भी लोकतंत्र में एकाएक रामराज्य या सर्व शांति की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती,लेकिन यह असंभव भी नहीं है. कोशिश की जानी चाहिए कि इन तमाम समस्याओं को जल्दी सुलझा लिया जाए. क्योंकि 'देरी से तो मिला हुआ न्याय भी न्याय से इनकार करता है'. कहीं इतनी देर न हो जाए कि कोई बोल बैठे-
यकायक क्यूँ ख़फ़ा हाकिम आज हो गए
तड़पकर सच बोल बैठे, इतने नाराज हो गए
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