गर्मी आने के साथ ही मच्छरों का आतंक शुरू हो जाता है. अधिकांश लोग मच्छरों से परेशान ही रहते हैं, इससे निजात पाने के लिए हर घरों में अलग-अलग उपाय किए जाते हैं. लेकिन आज हम आपको मच्छरों को मारने के लिए इस्तेमाल होने पर इलेक्ट्रिक बैट के बारे में बताने वाले हैं. आखिर ये कैसे आई और ये कितना असरदार है.
इस आशय का एक लेख आईआईटी कानपुर में फिजिक्स के अस्सिटेंट प्रोफेसर अधिप अग्रवाल ने अंग्रेजी के नेशनल दैनिक द हिंदू में लिखा है. इसी के आधार पर सवाल – जवाब के जरिए हम यहां बताएंगे कि मच्छरों को मारने वाले बैट कैसे सबसे अचूक और बेहतर साबित हुए हैं. साथ ही ये भी कि इसका आविष्कार किसने किया तो पुराने जमाने में लोग कैसे मच्छरों को भगाते थे.
इलेक्ट्रिक बैट कैसे काम करता?
बता दें कि मच्छरमार इलेक्ट्रिस बैट का काम करने का सिद्धांत बहुत आसान है. इसमें धातु की 03 जालियां होती हैं, जो केंद्र में होती है, वो प्लस चार्ज होती है यानि धनावेशित, जो बाहरी वो माइनस चार्ज यानि ऋणावेशित होती हैं. जब परतें एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करतीं, तो धारा प्रवाहित नहीं हो सकती हैं, लेकिन अब जब कोई मच्छर जरा भी इनके संपर्क में आकर जाली को जरा छू भी लेता है, तो करंट बहने लगता है और मच्छर मर जाता है. ये ठीक वैसा ही है, जिस तरह जब बिजली आसमान से नीचे जहां गिरती है, वहां उस जगह को करंट भी देती है. बिजली उस जगह को जला देती है. वही काम मच्छर के लिए बिजली का ये बैट भी करता है.
कितना वोल्टेज?
जानकारी के मुताबिक ये करीब 1,400 V यानि एक हजार नियमित बैटरियों के बराबर है. जैसे ही मच्छर संपर्क में आता है, शक्तिशाली विद्युत प्रवाह शुरू होने लगता है. वहीं इसके पास की हवा के संपर्क में आकर हवा में परमाणुओं से इलेक्ट्रॉनों को बाहर निकालता है, जो हमें चिंगारी के रूप में दिखाई देता है.
कैसे हुई इसकी शुरूआत
बता दें कि ताइवान के त्साओ-ए शिह को इस आधुनिक मच्छर रैकेट को बनाने का श्रेय दिया जाता है. जानकारी के मुताबिक वर्ष 1996 में उन्होंने इसे बनाया था. इस मच्छर बल्ले को इलेक्ट्रिक फ्लाईस्वैटर, रैकेट जैपर या जैप रैकेट के रूप में भी जाना जाता है. मच्छरों को संपर्क में आने पर ये उन्हें बिजली का एक छोटा सा झटका देकर मार देता है.
मच्छरदानी का आविष्कार
जानकारी के मुताबिक मच्छरदानी का इस्तेमाल प्रागैतिहासिक काल से होता आ रहा है. प्राचीन मिस्र की आखिरी सक्रिय फिरौन क्लियोपेट्रा भी मच्छरदानी के नीचे सोती थीं. हालांकि मच्छरदानी शब्द 18वीं शताब्दी के मध्य से इस्तेमाल होने का उल्लेख मिलता है. भारतीय साहित्य में भी मध्यकाल के आखिरी सालों में अनुष्ठानिक हिंदू पूजा में मच्छरदानी का उल्लेख मिलता है.
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