बहरे व्यक्ति किस भाषा में सोचते हैं, यह एक ऐसा सवाल है जो अक्सर लोगों के मन में उठता है. कई लोग मानते हैं कि बहरे लोग किसी भी भाषा में नहीं सोच पाते हैं या वो सिर्फ सांकेतिक भाषा में ही सोचते हैं, लेकिन क्या यह सच है? चलिए जानते हैं.
भाषा का सोच से है क्या संबंध?
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि भाषा और सोच का क्या संबंध होता है. भाषा हमारे विचारों को व्यक्त करने का एक माध्यम है. हम अपने अनुभवों, भावनाओं और विचारों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम सिर्फ तभी सोच सकते हैं जब हमारे पास शब्द हों.
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बहरे लोग कैसे सोचते हैं?
बहरे व्यक्ति भी सुनने की क्षमता रखने वाले लोगों की तरह ही सोचते हैं. वो भी अपने आसपास की दुनिया को समझते हैं, महसूस करते हैं और उन पर प्रतिक्रिया करते हैं. हालांकि, वो अपनी बातों को बताने करने के लिए अलग तरीके अपनाते हैं.
बता दें बहरे लोग आमतौर पर सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हैं. यह एक दिखने वाली भाषा है जिसमें हाथों के इशारों, चेहरे के भावों और शरीर की गतिविधियों का उपयोग करके बात की जाती है. सांकेतिक भाषा एक पूरी तरह से विकसित भाषा है जिसमें व्याकरण, वाक्य रचना और शब्दावली होती है. बहरे लोग इसी भाषा में सोचते हैं, महसूस करते हैं और यादें बनाते हैं. हालांकि कई बहरे लोग लिखित भाषा को भी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं और उसका उपयोग करते हैं. वो लिखकर और पढ़कर दूसरों के साथ बात करते हैं. बता दें कई बहरे व्यक्ति लिखित भाषा को भी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं और उसका उपयोग करते हैं. वे लिखकर और पढ़कर दूसरों के साथ संवाद करते हैं.
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कैसे दिमाग में होता है भाषा का विकास?
भाषा का विकास दिमाग में होता है. जब हम कोई भाषा सीखते हैं, तो हमारे दिमाग में नए तंत्रिका तंत्र बनते हैं. बहरे बच्चों के दिमाग में भी यही होता है. वो सांकेतिक भाषा को सीखते हैं और उनके दिमाग में उस भाषा के लिए अलग से क्षेत्र विकसित हो जाते हैं.
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