क्या है एंटी कोलेजन डिवाइस सिस्टम, क्या इसके लगने से नहीं होंगे ट्रेन हादसे?
भारतीय रेलवे दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है.रेलवे का व्यस्त रूट होने के कारण कई बार बंगाल के जलपाईगुड़ी जैसी रेल दुर्घटना भी हो जाती है.जानिए कैसे एंटी कोलेजन डिवाइस से इन्हें रोका जा सकता है
भारतीय रेलवे दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है. भारतीय रेल से हर दिन लाखों यात्री सफर करते हैं. भारत में व्यस्त रेल नेटवर्क होने के कारण कई बार दुर्घटना होने की आशंका रहती है. लेकिन रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए अब जल्द ही रेलवे एंटी कोलेजन डिवाइस का भी इस्तेमाल करेगा. आज हम आपको बताएंगे कि एंटी कोलेजन डिवाइस सिस्टम क्या होता है और ये कैसे काम करता है.
एंटी कोलेजन डिवाइस
अब सवाल ये है कि कैसे काम करता है एंटी कोलेजन डिवाइस? बता दें कि इस सिस्टम के जरिए रेलवे पटरियों पर सिग्नलिंग सिस्टम और ट्रेनों के इंजनों को रेडियो फ्रीक्वेंसी उपकरणों के साथ स्थापित किया जाता है. एंटी कॉलेजन डिवाइस का अलर्ट सिस्टम पटरियों पर मौजूद बाधाओं को पता लगाने का काम करता है. इस सिस्टम के जरिए रेलवे पटरी और ट्रेन इंजन के रेडियो फ्रीक्वेंसी सिस्टम के बीच तालमेल को चेक करता है. जैसे ही ट्रेन की पटरी पर कोई बाधा आती है तो अलर्ट सिस्टम संकेत भेजता है. इस सिस्टम से रात के वक्त और घने कोहरे में भी लोको पायलट को पटरी पर मौजूद बाधाओं की जानकारी मिलती है, जिससे लोको पायलट ट्रेन की रफ्तार कम कर सकता है.
जानकारी के मुताबिक इस डिवाइस का इस्तेमाल अभी दक्षिण मध्य रेलवे की 1098 लाइन किलोमीटर और 65 इंजनों पर किया गया है. इसे दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा सर्किट के हिस्से पर लागू किया जाना है. भारतीय रेलवे के मुताबिक 2028 तक देश के सभी रेल ट्रैकों पर एंटी कोलेजन डिवाइस पूरी तरह लागू हो जाएगी. माना जा रहा है कि भारतीय रेलवे नेटवर्क में पूरे तरीके से इस तकनीक के लागू होने के बाद रेल दुर्घटनाएं ना के बराबर होंगी. हालांकि सभी डिवीजन और ट्रेनों तक इस तकनीक को पहुंचने में अभी कुछ साल और लगेंगे.
कैसे काम करता है ये डिवाइस
इस तकनीक के जरिए जब पटरी पर कोई समस्या या सामने कोई ट्रेन दिखती है, तो लोगो पायलट को तुरंत खतरे का संदेश दिखता है. ऐसी स्थिति में अगर लोको ऑपरेटर ट्रेन की गति को कम करने या रोकने में नाकाम रहता है तो ‘कवच’ खुद ब खुद यानी आटोमैटिक तरीके से ब्रेक लगाकर गति को कम करके रोक देता है. ये तकनीक हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो संपर्क का उपयोग करते हुए लगातार काम करता है. जानकारी के मुताबिक इस तकनीक के ऊपर सरकार का प्रति किलोमीटर लगभग 30-50 लाख रुपये खर्च होने का अनुमान है.
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