एक दौरा था जब भारत को पूरी दुनिया में सोने की चीड़िया के नाम से जाना जाता था. आज हम आपको इसी सोने की चीड़िया के एक ऐसे खदान के बारे में बताएंगे जहां से 1880 से 2001 के बीच लगभग 800 टन सोना निकाला गया. इसके साथ ही आपको ये भी बताएंगे कि आखिर अंग्रेजों के शासनकाल में किस अंग्रेज अधिकारी ने इस खदान को खोजा था.


केजीएफ वाला कोलार खदान


साल 2018 में एक फिल्म आई केजीएफ इसमें मुख्य भूमिका में यश थे. फिल्म खूब चली, खूब पैसे छापे. अब आते हैं फिल्म के मुख्य केंद्रबिंदु पर. फिल्म का केंद्र बिंदु था एक सोने की खदान. इस खदान का नाम असलियत में कोलार गोल्ड माइन है. बेंगलुरु से लगभग 90 किमी दूर स्थित इस खदान से इतना सोना निकला है कि आप सोच भी नहीं सकते. केजीएफ का फुलफॉर्म भी 'कोलार गोल्ड फील्ड्स' है. ये फिल्म एक्शन और ड्रामा से भरी हुई है. लेकिन असली कहानी में ये सब कुछ नहीं है. चलिए अब आपको बताते हैं कि इस सोने की खदान की खोज किसने की थी.


कैसे हुई इस खदान की खोज


इस खदान की खोज को लेकर कई बातें कही जाती हैं. जैसे- ब्रिजेट व्हाइट अपनी किताब कोलार गोल्ड फील्ड डाउन मेमोरी लेन में लिखते हैं कि इस खदान का इस्तेमाल सोना निकालने के लिए गुप्त काल में भी होता था. जबकि, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित वेंकटस्वामी की किताब 'कोलार गोल्ड माइन्स' में लिखा है कि इस खदान का उपयोग सिंधु घाटी सभ्यता द्वारा भी किया जाता था.


लिखित में कब आया इसका नाम


ये साल था 1875 का. माइकल लावेल्ली नाम के एक ब्रिटिश सैनिक बैंगलोर में कार्यरत थे. उन्हें पता चला कि यहां से कुछ 90 किलोमीटर की दूरी पर सोने की खोज हो रही है. उनको लगा कि ये पैसे बनाने का बड़ा मौका है. उन्होंने कोलार में सोने की खदान के लिए मैसूर सरकार से अनुमति मांगी. बड़ी मशक्कत के बाद उन्हें अनुमति मिल गई.


हालांकि, उन्होंने वहां खुद खुदाई नहीं कि बल्कि एक साल बाद अपना लाइसेंस किसी और को ट्रांसफर कर दिया. इसके बाद कुछ लोगों ने इस में 5 हजार पाउंड का निवेश किया और इसे नाम दिया 'कोलार कंसेशनेयर'. बाद में चेन्नई और ओरिगम कंपनी ने इसमें 10 हजार पाउंड का निवेश किया और फिर मैसूर माइंस कंपनी और नंदी दुर्गा ने भी इसमें निवेश किया. इसके बाद से ही यहां से सोने का खनन बड़े रूप में होने लगा.


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