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किसानों से कैसे टैक्स वसूलते थे मुगल, पैसे ही लेते थे या कुछ और? जानकर उड़ जाएंगे होश

मुगल काल में किसानों को दो श्रेणियों में बांटा जाता था. खुद-काश्त और पाहि-काश्त. कृषि व्यवस्था पर जाति व्यवस्था का प्रभाव था, जिसमें जमींदारों का वर्चस्व था.

बीते दिनों हुआ किसानों का आंदोलन देश के बड़े मुद्दों में से एक था. ज्यादातर किसान भाई अपनी फसल की पैदावार पर निर्भर रहते हैं. किसानों को हमेशा उम्मीद रहती है कि उनकी फसल अच्छा मुनाफा देकर जाएगी. लेकिन क्या आप जानते हैं मुगलों के काल में किसानों के कैसे हालात थे? आइए हम आपको बताते हैं कि मुगल साम्राज्य के दौरान किसान अपना जीवन यापन कैसे करते थे?

मुगलों के दौर में थे दो तरह के किसान

भारत में मुगलों ने साल 1526 से लेकर 1857 तक राज किया. उस दौरान भारत के लोगों को कई परेशानियों को झेलना पड़ा था. मुगल साम्राज्य के समय कृषि व्यवस्था किस प्रकार कार्य करती थी, आइए समझते हैं. उस वक्त किसानों को रैयत या फिर मुज़रियान कहा जाता था. साथ ही, किसान या आसामी शब्द का भी इस्तेमाल किया जाता था. उस समय दो तरह के किसान होते थे. पहले खुद-काश्त, जो अपनी जमीन पर खेती करते थे. दूसरे पाहि-काश्त, जो दूसरे गांवों से आकर ठेके पर खेती करते थे.

खेती पर था जाति व्यवस्था का असर

मुगल काल के दौरान कृषि प्रणाली में जाति व्यवस्था का खासा प्रभाव हुआ करता था, जिसमें किसान कई जातियों में विभाजित थे. जाति के आधार पर पंचायतें और व्यापार किया जाता था. जमींदार कृषि का प्रमुख हिस्सा होते थे. वे अपनी जमीन किराए पर देते थे और कर भी वसूल करते थे, जिससे जाति व्यवस्था के आधार पर शोषण होता था.

फसल की किस्म से तय होता था टैक्स

रिपोर्ट्स के अनुसार, मुगल साम्राज्य में कर राजस्व की रीढ़ हुआ करता था. टैक्स को 'जमा' और 'हासिल' कहा जाता था, जो निर्धारित और एकत्रित कर राशि पर आधारित थे. हालांकि कर व्यवस्था सभी तरह की जमीन के लिए एक समान नहीं थी. विभिन्न तरीकों से कर वसूला जाता था. पोलज भूमि पर अधिक कर लगता था, क्योंकि उस पर सालभर फसल होती थी. वहीं, परौती भूमि पर कम कर, क्योंकि फसल थोड़े समय के लिए होती थी. बंजर भूमि की कर व्यवस्था अलग थी. कर का एक तिहाई हिस्सा शाही शुल्क के रूप में जमा किया जाता था.

औरंगजेब ने दिए थे ये निर्देश

मुगल शासक भूमि और उत्पादन पर जानकारी एकत्र करके टैक्स निर्धारित करते थे. राजस्व वसूली में कर निर्धारण और वसूली शामिल थी. अकबर ने हुक्म भी दिया था कि खेतिहर नकद भुगतान करें. साथ ही, फसलों में भुगतान का विकल्प भी खुला रहे. राज्य अधिक हिस्सा रखने का प्रयास करता था, लेकिन स्थानीय परिस्थितियों ने कभी-कभी पूरी वसूली को बाधित किया. अकबर और उसके लोगों ने भूमि सर्वेक्षण किया. अबुल फजल ने आइन में जमीन के आंकड़े दर्ज किए. मसलन 1665 ईसवीं में औरंगजेब ने अपने राजस्व कर्मचारियों को स्पष्ट निर्देश दिया कि हर गांव में खेतिहरों की संख्या का सालाना हिसाब रखा जाए, लेकिन जंगली क्षेत्रों का सर्वेक्षण नहीं किया गया.

ये भी पढ़ें: Rajya Sabha: राज्यसभा का असली नाम क्या है, आम भाषा में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता?

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