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दिन में लकड़सुंघवा रात में मुंहनोचवा...90 का वो दौर जब ख़ौफ ज़मीन से आसमान तक था

कोई मशीन या एलियन...जिसके मन में जो आता, वो मुंहनोचवा की अपनी परिभाषा दे देता. लेकिन ज्यादातर लोगों का दावा था कि यह एक उड़ने वाली चीज है जिसके अंदर से लाल, पीली और हरी लाइट जलती है

नब्बे का दशक लगभग उतर चुका था. देश तेजी से हो रहे आधुनिक बदलाव को महसूस कर रहा था. बदलाव के इसी दौर में बदल रहा था ख़ौफ का रूप. कभी गांवों में जो लोग डाकू, लुटेरे और भूत-प्रेतों से डरा करते थे...अब उनके अंदर मुंहनोचवा और लकड़सुंघवा जैसी अफवाहों का खौफ घर कर चुका था.

जून की तपती गर्म रातों में लोग अपनी छतों पर सोना बंद कर चुके थे. दिन में बच्चों के बाहर निकलने पर पूरी तरह से पाबंदी थी. हर रोज किसी ना किसी के मुंह से ये खबर सुनाई देती कि फलां गांव में मुंहनोचवा ने किसी पर हमला कर दिया या किसी के बच्चे को दोपहर में लकड़सुंघवा उठा ले गया.

जब मुंहनोचवा आया था

ये साल 2002 का था. उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में शाम होते-होते लोग अपने घरों में कैद हो जाते. उनके भीतर डर था कि अगर रात में अकेले बाहर निकले तो मुंहनोचवा हमला कर देगा. अख़बारों में इससे जुड़ी ख़बरें लगभग हर रोज ही छपती थीं. लेकिन किसी के पास इसका सही जवाब नहीं था कि आखिर रात का ये शिकारी है कौन.

कोई इंसान, कोई मशीन या एलियन... जिसके मन में जो आता, वो लोगों के बीच खड़ा होकर मुंहनोचवा की अपनी परिभाषा दे देता. लेकिन ज्यादातर लोगों का दावा था कि यह एक उड़ने वाली चीज है, जिसके अंदर से लाल, पीली और हरी लाइट जलती है और ये अंधेरे में मुंह नोच कर भाग जाता है.

गांव के गांव मुंहनोचवा के दहशत में रात गुजारते. कई गांवों में तो टीम बनी होती जो रात में जागती और पूरे गांव में घूम-घूम कर मुंहनोचवा की तलाश करती. अगर कभी गलती से गांव में कोई अनजान व्यक्ति मिल जाता तो उसकी तलाशी ली जाती. ऐसा इसलिए क्योंकि, अफवाह ये भी थी कि मुंहनोचवा को कुछ बाहरी लोग ऑपरेट कर रहे हैं.

हालांकि, हमेशा मुंहनोचवा के हमले की सिर्फ बातें सुनाई देतीं. आज तक कोई ऐसा इंसान मिला नहीं जिसने ये दावा किया हो कि उस पर मुंहनोचवा ने हमला किया. लेकिन मुंहनोचवा का आतंक और उससे जुड़ी अफवाहों का जोर इतना था कि इस पर बाद में कई कॉमिक्स भी लिखे गए.

लकड़सुंघवा का डर और बच्चों का बाहर जाना बैन

लकड़सुंघवा के डर की शुरुआत 90 के दशक से ही हो गई थी. खासतौर से बिहार और पुर्वांचल के गांवों में इसका डर इतना ज्यादा था कि दोपहर होते बच्चों को घर में कैद कर दिया जाता. उनके अकेले बाहर निकलने पर पूरी तरह से पाबंदी थी. खासतौर से मई और जून के महीने में लकड़सुंघवा का आतंक खूब रहता.

दरअसल, यूपी, बिहार में लकड़सुंघवा को लेकर कहा जाता था कि ये एक गैंग है जो बच्चों को लकड़ी सुंघा कर अपने साथ ले जाता था. कुछ लोगों का कहना था कि लकड़सुंघवा बच्चों को बेहोश कर के उठा ले जाता. जबकि, कुछ लोगों का दावा था कि लकड़सुंघवा जिन बच्चों को लकड़ी सुंघाता वो बच्चे उसके वश में हो जाते और उसके पीछे-पीछे उसके साथ चले जाते.

लकड़सुंघवा की अफवाह और मौत

लकड़सुंघवा का आतंक इतना ज्यादा थी कि गांव के लोग हर बाहरी को शक की नजर से देखते. साल 1991 में बिहार के औरंगाबाद के ओबरा गांव में कुछ गांव वालों ने लकड़सुंघवा के शक में एक साधु को पीट-पीट कर मार दिया था.

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