Parakram Diwas 2023 : आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 126वीं जयंती पर देश पराक्रम दिवस (Parakram Diwas 2023) मना रहा है. नेताजी का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़िसा के कटक में हुआ था. 1918 में फिलॉसफी में बीए पूरा करने के बाद बोस 1920 और 1930 के दशक के आखिरी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के युवा, कट्टरपंथी विंग के लीडर बन गए थे. भारत की आजादी में उनका और उनकी 'आजाद हिंद फौज' का योगदान अमूल्य और अविस्मरणीय था. आज नेताजी की जयंती पर आइए जानते हैं आजाद हिंद फौज यानी इंडियन नेशनल ​आर्मी की वो फैक्ट्स जो नहीं जानते होंगे आप...

 

'आजाद हिंद फौज'.. Unknown फैक्ट्स

 

आसान नहीं था आजाद हिंद फौज का गठन

दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी. सुभाष चंद्र बोस ने सोवियत संघ, नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान समेत कई देशों की यात्रा पूरी कर ली थी. इन यात्राओं का मकसद बाकी देशों के साथ आपसी गठबंधन को मजबूत कर भारत से ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना था. 1921-1941 के दौरान पूर्ण आजादी के लिए नेताजी ने गजब का साहस दिखाया था. इस वजह से उन्हें 11 बार जेल जाना पड़ा था. बोस 16 जुलाई 1921 को पहली बार 6 महीने के लिए जेल गए थे. साल 1941 में एक मुकदमे के सिलसिले में उन्हें कलकत्ता कोर्ट में पेश होना था लेकिन वे जर्मनी चले गए.

 

विदेश में आजाद हिंद फौज का जन्म

जर्मनी पहुंचकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सबसे पहले तत्कालीन चांसलर हिटलर से मुलाकात की. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही साल 1942 में आजाद हिंद फौज यानी कि इंडियन नेशनल आर्मी (INA) नाम की एक सशस्त्र सेना बनाई गई थी. जिसका मकसद भारत से ब्रिटिश जड़ों को उखाड़कर फेंकना था. आजाद हिंद फौज की स्थापना क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस ने जापान के टोक्यो में की थी. 28 से 30 मार्च 1942 में नेताजी को इस फौज पर विचार रखने के लिए बुलाया गया था. 21 अक्टूबर, 1943 को नेताजी के हाथ में इस फौज की कमान सौंप दी गई.

 

जापान में बंदी बनाए गए लोगों से बना 'आजाद हिंद फौज'

आजाद हिंद फौज कोई छोटी सेना नहीं थी. जापान का इसमें काफी सहयोग मिला था. नेताजी ने जब आजाद हिंद फौज की कमान संभाली, तब इसमें 45,000 सैनिक थे, जो युद्ध-बंदियों के साथ-साथ दक्षिण पूर्वी एशिया के अलग-अलग देशों में रह रहे थे. 1944 में नेताजी अंडमान गए जहां जापानियों का कब्जा था, वहां उन्होंने भारत का झंड़ा फहराया. इसके बाद इस फौज की संख्या 85,000 हो गई. इसमें एक महिला यूनिट भी थी, जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के हाथ में थी. इस फौज में सबसे पहले वे लोग शामिल किए गए, जिन्हें जापान ने बंदी बना लिया था. बाद में बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी इस फौज में शामिल हुए. देश के बाहर रह रहे लोग इस सेना का हिस्सा बने थे.

 

आजाद हिंद फौज की महिला जासूस

नेताजी ने आजाद हिंद फौज में महिलाओं को बराबर का मौका दिया था. महिला रेजिमेंट में बहुत सी लड़कियों को ट्रेनिंग दी गई थी. कुछ लड़कियों को मेडिकल के साथ जासूसी की ट्रेनिंग भी दी गई थी. आज भी नीरा आर्या और सरस्वती राजामणि जैसी जासूसों का नाम सबसे पहले आता है. दोनों ने ही ब्रिटिश पुलिस के साथ लड़कों के वेश में काफी वक्त तक काम करती रहीं. यहां से जरूरी जानकारियां नेताजी तक पहुंचाती थीं. एक बार उनकी एक साथी पकड़ी गई, जिसे बचाने में सरस्वती के पैर में गोली भी लगी थी लेकिन वह जैसे-तैसे नेताजी के पास पहुंची और अंग्रेजी सरकार की अहम जानकारियां सौंपी.

 

आजाद हिंद फौज की भारत में एंट्री

भारत को ब्रिटिश राज से आजाद करने साल 1944 में आजाद हिंद फौज इंफाल और कोहिमा के रास्ते से भारत में आने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. इसी दौरान कई सैनिक गिरफ्तार कर लिए गए और उन पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना ने देशवासियों में जोश भर दिया और आजाद हिंद फौज के समर्थन में लोग घर से निकलकर सड़कों पर आ गए. सैनिकों की रिहाई की मांग की गई और आजाद हिंद फौज का 'दिल्ली चलो' का नारा और सलाम 'जय हिंद' जमकर गूंजा. इस लड़ाई में महिलाओं ने भी कंधे से कंधा मिलाकर मदद की. 

 

आजाद हिंद फौज की मदद से अस्थायी सरकार बनी

आजाद हिंद फौज में पहली बार 19 मार्च, 1944 को झंडा फहराया था. राष्ट्रीय ध्वज फहराने वालों में कर्नल शौकत मलिक, कुछ मणिपुरी और आजाद हिंद के सैनिक शामिल थे. 21 अक्टूबर, 1943 की बात है, तब आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति सुभाष चंद्र बोस थे, उन्होंने इस फौज की मदद से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई. जिसे कई देशों ने मान्यता भी दी, जिसमें जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्छेको और आयरलैंड शामिल थे. 

 

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