हिटलर का नाम सुनते ही आपको विश्व युद्ध की याद आ जाती होगी है, जिसमें ऐसी तबाही मची थी जिसने करोड़ों लोगों की जान ले ली थी. हालांकि हम बात कर रहे हैं साल 1925 की. ये वो साल था जब हिटलर की आत्मकथा “माइक कैम्फ” छपी थी. ये किताब छपने के कुछ समय बाद ही काफ़ी पॉपुलर हो गई थी. दुनियाभर में कई भाषाओं में इस किताब का अनुवाद हुआ, सिवाय फ़्रांस के. दरअसल फ़्रांस में हिटलर ने ख़ुद इस किताब पर बैन लगा दिया था. जिसके पीछे उसकी दोस्ती का हाथ बढ़ाकर फ़्रांस को तबाह करने की मंशा थी. इसके लिए हिटलर ने एक ख़ास बंदूक़ भी बनवाई थी. जो कितनी बड़ी होगी इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इस बंदूक को चलाने के लिए हिटलर के साथ 500 लोग चलते थे.
हथियारों की फ़ैक्ट्री में जब हिटलर ने दिया आदेश
हिटलर फ़्रांस से दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका था, हालांकि इसके पीछे उसकी योजना फ़्रांस को तबाह करने की थी. एक रोज़ वो हथियारों की फ्रैक्ट्री का दौरा करने गया, जहां उसने आदेश दिया कि उसे एक ऐसी बंदूक़ चाहिए जो फ़्रांस को तबाह कर सके. हिटलर के हुक्म की तामील भी हुई और 14 लाख किलो वज़नी एक बंदूक़ तैयार की गई.
जिसकी ऊंचाई किसी चार मंज़िला इमारत से कम न थी. साथ ही उस बंदूक़ की मारक क्षमता 40 किलोमीटर थी. आपको जानकर हैरानी होगी कि इस बंदूक से चलने वाली एक गोली का वजन 7000 हज़ार किलो था. इस बंदूक़ की एक गोली चलाने के लिए कम से कम 500 लोग लगते थे.
बनाने में खर्च हो गए थे 45 करोड़ रुपये
इस बंदूक़ को बनाने में लाखों टन स्टील लगाया गया था. जिसके बाद लगभग 45 करोड़ रुपये की लागत से ये बंदूक़ तैयार की गई थी. सबसे बड़ी बात थी कि इस बंदूक़ को बनने के बाद एक जगह से दूसरी जगह ले कैसे जाया जाए, दरअसल बंदूक़ इतनी भारी थी कि कोई रोड भी इसका वजन सहन नहीं कर पाती, ऐसे में ख़ासतौर पर इस बंदूक़ को ले जाने के लिए एक रेल की पटरी बिछायी गई. इस बंदूक़ से एक गोली चलाने के लिए 45 मिनट का समय लगता था, साथ ही ये पूरे दिन में 14-15 बार ही फ़ायर कर सकती थी.
कब हुआ बंदूक़ का इस्तेमाल?
अब आप सोच रहे होंगे कि क्या कभी इस बंदूक़ का इस्तेमाल किया भी गया और हां तो कब? तो बता दें कि इस भारी सी बंदूक़ का इस्तेमाल पहली बार साल 1942 में हुआ था. उस वक़्त इस बंदूक़ ने सेवास्तापोल को पूरी तरह तबाह कर दिया था. इस बंदूक़ से लगभग 50 गोले दागे गए थे, जिसमें सोवियत के लाखों सैनिकों की मौत हो गई थी.
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