Buddhist monks: बौद्ध भिक्षुओं के अंतिम संस्कार को कहा जाता है आत्म बलिदान, ये अंतिम संस्कार है सबसे अलग
सभी धर्मों में हर संस्कार के लिए अपने रीति रिवाज हैं. लेकिन आज हम आपको बौद्ध धर्म के अंतिम संस्कार के बारे में बताने वाले हैं. बौद्ध धर्म का अंतिम संस्कार सबसे अलग माना जाता है.जानिए इसके पीछे का कारण
![Buddhist monks: बौद्ध भिक्षुओं के अंतिम संस्कार को कहा जाता है आत्म बलिदान, ये अंतिम संस्कार है सबसे अलग The last rites of Buddhist monks are called self-sacrifice this last rites is different from all others Buddhist monks: बौद्ध भिक्षुओं के अंतिम संस्कार को कहा जाता है आत्म बलिदान, ये अंतिम संस्कार है सबसे अलग](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2024/04/20/a8f63a0455ffc58890d4c46c6f01175e1713559280408906_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
दुनियाभर के सभी धर्मों की अपने-अपने रीति रिवाज हैं. यही कारण है कि लोग अपने धर्म या संप्रदाय के मुताबिक परंपराओं और प्रथाओं से सभी संस्कार करते हैं. परिवार में किसी का आना जैसे खुशी होती है, वैसे ही किसी का इस जीवन से जाना दुखद होता है. लेकिन आज हम आपको बौद्ध धर्म में मरने के बाद अंतिम संस्कार की प्रक्रिया बताने वाले हैं. क्योंकि ये बाकी धर्मों से बहुत ज्यादा अलग है.
बौद्ध धर्म
बता दें कि हिंदुओं में शव का दाह संस्कार किया जाता है. इस्लाम धर्म मानने वाले शव को दफनाते हैं. इसके अलावा ईसाई धर्म में भी शव को दफनाया जाता है, लेकिन ताबूत के अंदर रखकर. जैन मुनियों के अंतिम संस्कार में लोग हर चरण में बोलियां लगाते हैं और उससे जुटने वाली रकम का इस्तेमाल लोगों की भलाई में किया जाता है. लेकिन तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों में अंतिम संस्कार का तरीका एकदम अलग है.
बौद्ध धर्म के संत
बता दें कि बौद्ध धर्म में आज भी संतों और साधुओं के साथ ही आम लोगों के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया काफी अलग है. यहां मृत्यु के बाद ना तो शव को दफनाया जाता है और ना ही जलाया जाता है. दरअसल बौद्ध धर्म में व्यक्ति की मृत्यु के बाद शव को काफी ऊंची जगह पर लेकर जाते हैं. बौद्ध धर्म के लोगों का कहना है कि उनके यहां अंतिम संस्कार की प्रक्रिया आकाश में पूरी की जाती है. इसीलिए शव को बहुत ऊंची चोटी पर लेकर जाते हैं. तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अंतिम संस्कार के लिए पहले से ही जगह मौजूद होती हैं. शव के पहुंचने से पहले ही बौद्ध भिक्षु या लामा अंतिम संस्कार की जगह पर पहुंच जाते हैं. इसके बाद शव की स्थानीय पंरपराओं के मुताबिक पूजा की जाती है. फिर एक विशेष कर्मचारी शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है. इस विशेष कर्मचारी को बौद्ध धर्म के अनुयायी रोग्यापस कहते हैं.
शव में जौ का आटा
बता दें कि शव के छोटे-छोटे टुकड़े करने के बाद रोग्यापस जौ के आटे का घोल तैयार करता है. इसके बाद टुकड़ों को इस घोल में डुबोया जाता है. फिर इन जौ के आटे के घोल में लिपटे शव के टुकड़ों को तिब्बत के पहाड़ों की चोटियों पर पाए जाने वाले गिद्धों-चीलों का भोजन बनने के लिए डाल दिया जाता है. जब गिद्ध और चीलें उनके टुकड़ों में से मांस को खा लेते हैं, तो बची हुए अस्थियों को पीसकर चूरा बनाया जाता है. इस चूरे को फिर से जौ के आटे में घोलकर डुबोया जाता है और पक्षियों का भोजन बनने के लिए छोड़ दिया जाता है.
अंतिम संस्कार ऐसा क्यों होता?
बता दें कि तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अंतिम संस्कार की इस जटिल परंपरा को मानने के पीछे कई कारण हैं. जानकारों के मुताबिक तिब्बत बहुत ऊंचाई पर बसा होने के कारण यहां पेड़ आसानी से नहीं पनप पाते हैं. ऐसे में शव का दाह संस्कार करने के लिए लकड़ियां इकट्ठी करना यहां आसान नहीं होता है. वहीं तिब्बत की जमीन पथरीली है. ऐसे में कब्र के लिए गहरा गड्ढा खोदना भी बहुत मुश्किल काम है.
इन सबके अलावा ये कहा जाता है कि मरने के बाद शरीर एक खाली बर्तन हो जाता है. इस कारण शव को छोटे टुकड़ों में काटकर पक्षियों को खिलाने से उनका भला हो जाता है. बता दें कि अंतिम संस्कार की इस पूरी प्रक्रिया को बौद्ध धर्म में ‘आत्म बलिदान’ कहा जाता है.
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