किसी इंसान की ज़िंदगी में प्रेम का होना सबसे खूबसूरत अहसास है. लेकिन एक समय में इसी अहसास को एक बीमारी के तौर पर देखा जाता था. ये दौर था 11वीं शताब्दी का. इस दौर में कई लेखक और चिकित्सक हुए, जिन्होंने प्रेम को एक बीमारी के तौर पर देखा और उसका इलाज भी बताया. चलिए आज आपको इस आर्टिकल में बताते हैं कि आखिर उस दौर में प्रेम को एक बीमारी के तौर पर क्यों देखा जाता था और उसका इलाज कैसे होता था.


प्रेम एक बीमारी थी


11वीं शताब्दी में एक चिकित्सक हुए कॉन्स्टेंटाइन अफ्रीकन. उनका मानना था कि प्रेम एक बीमारी है जो शरीर में किसी काले पदार्थ की अधिकता की वजह से होती है. कॉन्स्टेंटाइन का मानना था कि यह बीमारी सीधे इंसान के दिमाग पर असर डालती है और बीमार व्यक्ति के मन में तनावपूर्ण विचार और चिंता पैदा करती है. इसी तरह से बोइसियर के नॉवेल द सॉवेज में प्रेम को उस बीमारी की तरह देखा गया जो इंसान में उदासी पैदा करती है. जबकि, उस दौर के कुछ चिकित्सक यहां तक मानते थे कि प्रेम इतनी घातक बीमारी है कि वह मरीज की जान भी ले सकती है.


चिकित्सकों के अलावा कुछ साहित्यकारों ने भी प्रेम को एक बीमारी के तौर पर देखा. गार्सिलसो डे ला वेगा ऐसे ही साहित्यकारों में से एक थे. उन्होंने अपनी किताबों में प्रेम को एक ऐसी बीमारी के तौर पर दर्शाया जो पागलपन और मृत्यु का कारण बन सकती है. वहीं जब आप लेखक डिएगो डी सैन पेड्रो की 1492 में लिखी प्रिज़न ऑफ़ लव के मुख्य पात्र लिरियानो को देखते हैं तो वह भी प्रेम नाम की बीमारी से ग्रसित मिलता है.


प्रेम का इलाज


जिन मनोवैज्ञानिकों, लेखकों और चिकित्सकों ने प्रेम को एक बीमारी की तरह देखा, उन्होंने इस बीमारी का इलाज भी बताया. उस दौर में इस बीमारी को दो तरीकों से दूर किया जाता था. पहला तरीका था आहार. यानी अगर किसी व्यक्ति को प्रेम की बीमारी हो गई है तो उसे सात्विक आहार दिया जाता था. यानी उस व्यक्ति को शराब, मांस, अंडा और हर उस तरह के भोजन से दूर रखा जाता था, जिसकी तासीर गर्म हो और जो पेट में जाने के बाद भारीपन महसूस कराए.


दरअसल, उस दौर के चिकित्सकों का मानना था कि इस तरह का भोजन इंसान के अंदर रक्त संचार को बढ़ा देता है और इससे यौन इच्छाएं बढ़ जाती हैं.  वहीं प्रेम से ग्रसित मरीजों को मछली और सिरका खाने को दिया जाता था. जबकि, दूसरा तरीका था नैतिक अनुशासन.


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