राजधानी दिल्ली समेत पूरी दुनियाभर के कई देशों में भीषण गर्मी पड़ना शुरू हो चुकी है. बता दें कि साल 2023 पृथ्वी का सबसे गर्म साल था. हालांकि वैज्ञानिक इस समस्या से निपटने के लिए अलग-अलग तरीकों पर काम कर रहे हैं. अमेरिकी वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए बादलों के संरचना को बदलकर सूरज की किरणों को रिफ्लेक्ट करने और धरती को ठंडा रखने पर रिसर्च कर रहे हैं. 


क्लाउड ब्राइटनिंग


बता दें कि पृथ्वी के तापमान को इस तरह से ठंडा करने के तरीके को क्लाउड ब्राइटनिंग कहते हैं. वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने सैन फ्रांसिस्को खाड़ी में एक जहाज पर रहकर एक डिवाइस से सैकड़ों समुद्री नमक के कण खुले में छोड़े थे. यह डिवाइस किसी बर्फ छोड़ने वाली मशीन जैसा था. इस प्रोजेक्ट का मकसद समुद्री बादलों की डेंसिटी बढ़ाना और उनकी रिफ्लेक्ट करने की क्षमता को और बेहतर करना है.


क्या होता है क्लाउड ब्राइटनिंग?


सवाल ये है कि आखिर क्लाउड ब्राइटनिंग क्या होता है. बता दें कि ये सोलर एनर्जी को वापस अंतरिक्ष में भेजने के कई तरीकों में से एक है. इस तरह की तकनीक को सोलर रेडिएशन मोडिफिकेशन, सोलर जियोइंजीनियरिंग और क्लाइमेट इंटरवेंशन भी कहा जाता है. बादलों के जरिए पृथ्वी का तापमान बदलने के आइडिया पर काफी पहले से रिसर्च चल रहा है. सबसे पहले 1990 में जॉन लैथम नाम के एक ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी ने नेचर जर्नल में इसका जिक्र किया था. उन्होंने कहा कि छोटे कणों को बादलों में इंजेक्ट करने से बढ़ते तापमान को संतुलित किया जा सकता है.


क्या था रिसर्च


दरअसल डॉ. लैथम का प्रस्ताव था कि अगर 1,000 जहाज दुनिया के महासागरों में लगातार समुद्री पानी की छोटी बूंदों को हवा में स्प्रे करते हैं, तो उससे पृथ्वी की ओर आने वाली सोलर हीट को रिफ्लेक्ट किया जा सकता है. इसके पीछे ये सोच थी कि छोटी संख्या में बड़ी बूंदों की तुलना में बड़ी संख्या में छोटी बूंदें सूरज की किरणों को रिफ्लेक्ट करने में ज्यादा असरदार है. भारी मात्रा में छोटे एरोसोल इंजेक्ट करने से बादलों की संरचना बदली जा सकती है.
वहीं डॉ. लैथम ने बीबीसी को बताया था कि अगर हम रीफ्लेक्टिविटी को लगभग 3 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं, तो उससे होने वाली ठंडक वातावरण में बढ़ रही ग्लोबल वार्मिंग को संतुलित कर सकती है. उन्होंने कहा कि यह समस्या का हल नहीं है, लेकिन इससे इंसानों को और समय मिलेगा.


क्लाउड ब्राइटनिंग कितना संभव?


जानकारी के मुताबिक क्लाउड ब्राइटनिंग एक जटिल प्रोसेस है. इसमें सफलता के लिए एरोसोल का सही आकार होना आवश्यक है. प्रोजेक्ट पर काम पर काम कर रही एक शोध वैज्ञानिक जेसिका मेड्राडो ने न्यूयॉर्क टाइम्स को इसके बारे में बताया है. उनके मुताबिक अगर कण बहुत छोटे हैं तो उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. वहीं अगर एरोसोल के बहुत बड़े कण आसमान में छोड़े जाएंगे तो इसका उल्टा असर हो सकता है. इनसे बादल पहले की तुलना में कम रिफ्लेक्टिव हो जाएंगे. वहीं शोध वैज्ञानिक ने बताया कि एरोसोल का आकार इंसान के बाल की मोटाई का लगभग 1/700वां हिस्सा होना चाहिए. सही आकार के अलावा यह भी जरूरी है कि हर सेकेंड बहुत सारे एरोसोल कणों को हवा में छोड़ा जाना चाहिए.


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