दुनिया में पैसों के लेन-देन को लेकर कई तरह के बैंक है और उनके अलग-अलग नियम है. जिसमें सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के बैंक शामिल हैं. लेकिन आज हम आपको उस बैंक के बारे में बताएंगे, जो शरीया कानून के सिद्धांतों पर चलता है. इस्लामिक बैंक पूरे तरीके से शरीया कानून के मुताबिक चलता है. हालांकि भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने शरीया कानून के सिद्धांतों पर चलने वाली इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था शुरू करने के प्रस्ताव पर आगे ना बढ़ने का फैसला किया था. आरबीआई ने अपने फैसले पर तर्क देते हुए कहा था कि सभी लोगों के सामने बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं के समान अवसर पर विचार करने के बाद ही यह निर्णय लिया गया है. आज हम आपको बताएंगे कि इस्लामिक बैंकिंग कहते किसे हैं और फिलहाल कितने देशों में काम कर रहा है.
इस्लामिक बैंक किसे कहते ?
इस्लामी कानून यानी शरिया के सिद्धांतों पर काम करने वाली बैंकिंग व्यवस्था को इस्लामिक बैंकिंग कहा जाता है. इन बैंकों की खासियत यह है कि इनमें किसी तरह का ब्याज ना तो लिया जाता है और ना ही दिया जाता है. इतना ही नहीं इस बैंक को होने वाले लाभ को इसके खाताधारकों में बांट दिया जाता है. जानकारी के मुताबिक इन बैंकों के पैसे गैर इस्लामी कार्यों में नहीं लगाए जा सकते है.जानकारी के मुताबिक दुनिया के 75 देशों में 350 इस्लामी वित्तीय संस्थान संचालित हैं.
कैसे काम करता है इस्लामिक बैंक ?
• सेविंग अकाउंट
• इन्वेस्टमेंट अकाउंट
• जक़ात अकाउंट
इस्लामी बैंकिंग में एक ग्राहक अपने पैसे को एक विशिष्ट खाते में जमा करता है, और बैंक ग्राहक के पैसे वापस करने की गारंटी देता है. लेकिन सेविंग अकाउंट पर कोई भी ब्याज नहीं दिया जाता है. वहीं बैंक ग्राहकों को मांग के आधार पर पैसे निकालने की अनुमति है.
मलेशिया में खुला था पहला इस्लामिक बैंक
दुनिया भर में पहला इस्लामिक बैंक मलेशिया में 1983 में स्थापित हुआ था. इस्लामिक बैंकिंग स्कीम के तहत 1993 में कॉमर्शियल, मर्चेंट बैंकों और वित्तीय कंपनियों ने इस्लामिक बैंकिंग प्रॉडक्ट और सर्विसेज प्रस्तुत करने शुरू किए थे. बता दें कि आज वैश्विक स्तर पर इस्लामिक फाइनेंस इंडस्ट्री का आकार बढ़ कर 1.6 लाख करोड़ डॉलर के पार पहुंच चुका है.
बिना ब्याज का लोन
इस्लामिक बैंक में किसी भी रिटर्न या मुनाफे की उम्मीद किए बिना एक जरूरतमंद व्यक्ति को ऋण दिया जाता है. इस स्थिति में उधार लेने वाले व्यक्ति को सिर्फ मूल धन ही चुकाना होता है, हालांकि अगर कर्जदार चाहे तो वो अपनी स्वेच्छा से बैंक को कुछ अतिरिक्त पैसों की अदायगी कर सकता है.