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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

अध्यादेश लाकर अब तक पलटे जा चुके हैं कोर्ट के ये बड़े फैसले, संसद की क्या है ताकत?

केंद्र सरकार ने कहा कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू नहीं किया जाएगा. लेकिन क्या आप जानते हैं कि केंद्र सरकार ने कब-कब अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटा है.

केंद्र सरकार ने कहा कि अनुसूचित जाति और जनजातियों (SC/ST) के आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू नहीं किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई ने 1 अगस्त को यह टिप्पणी की थी कि SC-ST में भी क्रीमी लेयर लागू करने पर विचार करना चाहिए. इसके बाद देशभर के दलित सांसदों ने पीएम से मिलकर अपनी चिंता जताई थी. आज हम आपको बताएंगे कि केंद्र सरकार अब तक कितनी बार सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटने के लिए अध्यादेश ला चुका है. 
 

आरक्षण में क्रीमी लेयर

बता दें कि मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने बीते हफ्ते 6:1 के बहुमत वाले फैसले में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के कोटे में कोटा दिए जाने को मंजूरी दी थी. उस दौरान कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी कैटेगरी के भीतर नई सब कैटेगरी बना सकते हैं और इसके तहत अति पिछड़े तबके को अलग से रिजर्वेशन दे सकते हैं. जिसके बाद एससी-एसटी कैटेगरी वर्ग चिंता में आ गया था. इसको लेकर पीएम नरेंद्र मोदी से शुक्रवार 9 अगस्त को संसद भवन में उनसे मिलने आए 100 दलित सांसदों को पीएम ने आश्वासन दिया था. इसके बाद देर शाम केंद्र ने इसकी घोषणा भी कर दी थी. 

सरकार ने क्या कहा 

बीते 9 अगस्त की शाम को कैबिनेट मीटिंग हुई थी. इसके बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि एनडीए सरकार बीआर अंबेडकर के बनाए गए संविधान से बंधी है. इस संविधान में एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का कोई प्रावधान नहीं है. 

कब-कब संसद ने पलटा फैसला

 आरक्षण का मामला -  बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटने का सबसे पहला मामला 1961 में आया था. 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि उम्मीदवार की धर्म या जाति के आधार पर सरकार एडमिशन में सीटें आरक्षित नहीं रख सकती है.

जिसके बाद 1961 में संविधान में पहला संशोधन किया गया था. इसके तहत अनुच्छेद 15 में क्लॉज (4) जोड़ा गया था. अनुच्छेद 15(4) ने सरकार को सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने का अधिकार दिया था.

इंदिरा गांधी केस 

बता दें कि 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीती थी. जिसके बाद इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को रायबरेली चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया था.

इसके बाद सरकार ने संविधान में 39वां संशोधन किया और अनुच्छेद 392A जोड़ा था. अनुच्छेद 392A कहता था कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा स्पीकर के चुनाव को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 39वें संशोधन को अवैध करार देते हुए रद्द कर दिया था.

शाह बानो केस 

मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली शाह बानो को उनके पति मुहम्मद अली खान ने तलाक दे दिया था. जिसके बाद शाह बानो ने गुजारा भत्ता की मांग को लेकर केस दायर किया था. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक में फैसला दिया था. इस दौरान कोर्ट ने साफ किया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता मांग सकती हैं.

इसके बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986 पेश किया था. नए कानून के तहत मुस्लिम महिलाएं धारा 125 के तहत गुजारे भत्ते का हक नहीं मांग सकती थी. कानून में प्रावधान किया गया था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं इद्दत की तीन महीने की अवधि पूरी होने तक ही गुजारा भत्ते की हकदार हैं.

ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट

बता दें कि फरवरी 2021 में लोकसभा में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स बिल पेश किया था. लेकिन ये अटक गया था. इसके बाद अप्रैल 2021 में सरकार अध्यादेश लेकर आई थी. अध्यादेश के तहत कुछ अपीलेट बॉडीज को भंग करने और उनके कामकाज को मौजूदा ज्यूडिशियल बॉडीज को ट्रांसफर करना था. इसके अलावा इसमें ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल भी 4 साल फिक्स करने का प्रावधान था. वहीं चेयरपर्सन के लिए अधिकतम आयु सीमा 70 साल और सदस्यों के लिए 67 साल थी.

लेकिन 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को रद्द कर दिया. हालांकि अगले ही महीने संसद में ये कानून बन गया था. जिसके बाद में इसे फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. फिलहाल ये मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

एससी-एसटी एक्ट

इसके अलावा मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि एससी-एसटी एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के तहत सरकारी अफसरों को गिरफ्तार करने से पहले अनुमति लेनी होगी, साथ ही ऐसे मामलों में जांच किए बगैर एफआईआर भी दर्ज नहीं होगी.

लेकिन इसके बाद एससी-एसटी एक्ट में संशोधन करके धारा 18A जोड़ी गई थी. इसमें प्रावधान था कि एससी-एसटी एक्ट के तहत बगैर एफआईआर और बगैर किसी के अनुमति के भी गिरफ्तारी हो सकती है. इस संशोधन के जरिए ये भी प्रावधान किया गया था कि ऐसे मामले में गिरफ्तार होने वाले को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती है.

दिल्ली उपराज्यपाल केस 

बता दें कि राजधानी दिल्ली में अध्यादेश के तहत अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग से जुड़ा आखिरी फैसला लेने का हक फिर से उपराज्यपाल को दे दिया गया है.  इसके तहत दिल्ली में सेवा दे रहे 'दानिक्स' कैडर के ग्रुप-A अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए एक अथॉरिटी का गठन किया जाएगा. दानिक्स का मतलब दिल्ली, अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप, दमन एंड दीव, दादरा एंड नागर हवेली सिविल सर्विसेस है.

ये भी पढ़ें: बिहार में मंदिर, मठ और ट्रस्टों का कैसे होगा रजिस्ट्रेशन? जानें क्या है पूरा प्रोसेस

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