Owner of Hyderabad House: दिल्ली देश की राजधानी है, जो अंग्रेजो के काल से है. जब भारत में गोरे राज किया करते थे. तब देश में अलग-अलग रियासतें हुआ करती थी. आजादी के बाद उन सभी को भारत में में शामिल कर लिया गया. कुछ राजा और उनकी रियासत खुशी-खुशी शामिल हो गए तो किसी रियासत के लिए भारत सरकार को सेना का इस्तेमाल करना पड़ा. उसी में से एक नाम हैदराबाद रियासत के निजाम का भी था. वह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे. आज की स्टोरी में हम उनके द्वारा दिल्ली में बनवाई गई हैदराबाद हाउस की उस कहानी के बारे में बताएंगे जो काफी फेमस है. दरअसल, जी-20 समिट में शामिल होने आए विदेशी मेहमानों में से एक सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद ने पीएम मोदी के साथ उसी हाउस में मुलाकात की है.
क्या है इस हैदराबाद हाउस की कहानी?
यह बात तब की है जब देश में अंग्रेजी हुकूमत हुआ करती थी. भारत के अलग-अलग रियासतों के साथ बेहतर तालमेल के लिए अंग्रेज चैंबर ऑफ प्रिंसेस की मीटिंग किया करते थे. उसके लिए राजाओं को दिल्ली आना पड़ता था. दिल्ली में रहने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी. तब अलग-अलग रियासतों ने अपने ठहरने के लिए जमीन खरीदी और एक भवन का निर्माण कराया. उसी कड़ी में हैदाराबाद के निजाम मीर ओस्मान अली खान ने अपने लिए एक स्थाई ठिकाना दिल्ली में बनवाया. उसके लिए उन्होंने भारी-भरकम रकम खर्च की.
बनाने में आया था 50 लाख रुपये का खर्च
उन्होंने इसके निर्माण के लिए वायसराय हाउस को तैयार करने वाले एडविन लुटियंस को बुलाया और हैदराबाद हाउस को तैयार करने की जिम्मेदारी दी. जिस जमीन पर उस भवन को तैयार किया जा रहा था, उसे निजाम ने उस जमाने के 5000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से खरीदी थी. उस भवन को बनाने में तब 50 लाख रुपये का खर्च आया था. हाउस के निर्माण के लिए निजाम ने विदेशों से खूब समान मंगवाए. हाउस की खूबसूरती निखारने के लिए दुनिया के नामी पेंटरों की 17 पेंटिंग मंगवाई गई. जिसकी कीमत 10 से 20 हजार रुपये थी.
निजाम को नहीं आया था पसंद
सबसे खास बात यह है कि जब यह हाउस बन कर तैयार हो गया तब निजाम को इसके बारे मे सूचना दी गई कि आप हाउस में विजिट कर सकते हैं. उसे तैयार करने में 10 साल लग गए थे. जब निजाम पहली बार हैदराबाद हाउस पहुंचे तो परेशान हो गए. उन्होंने उसकी तुलना घोड़े के अस्तबल के कर दी और कहा कि यह किसी सस्ते हाउस का कॉपी लग रहा है. आज इस हाउस का मालिकाना हक केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय के पास है. जो 70 के दशक में हुए समझौते पर आधारित है.
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