रंग बिरंगी क्यों होती हैं दवाईयां...जानिए क्या है बीमारी से इनका संबंध
कैप्सूल्स बनाने के लिए 75000 से ज्यादा कलर कॉन्बिनेशन का इस्तेमाल होता है, वहीं टेबलेट की कोटिंग के लिए भी कई तरह के अलग-अलग रंग इस्तेमाल किए जाते हैं.
आप जब भी कभी बीमार पड़े होंगे और डॉक्टर के पास गए होंगे तो वहां से आपको ढेर सारी दवाइयां मिली होंगी. क्या आपने नोटिस किया है कि वह दवाइयां बेहद रंग बिरंगी होती हैं. पेरासिटामोल को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर दवाइयां किसी न किसी रंग में होती हैं. वहीं अगर दवाइयों में कैप्सूल है तो वह कई बार दो रंगों में मिलता है. लेकिन आखिर दवाइयां रंग बिरंगी क्यों होती हैं? क्या इनके रंगों से बीमारी का भी कोई संबंध है? क्या दवाइयों के रंग को मेडिकल साइंस में किसी खास कोड की तरह प्रयोग किया जाता है? अगर आपके मन में भी इस तरह के कई सवाल हैं तो आज इस आर्टिकल में हम आपको इन सवालों के जवाब देने की पूरी कोशिश करेंगे.
कब से रंग बिरंगी दवाइयां बननी शुरू हुईं
इंटरनेट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, पहली बार दवाइयों को रंगने का काम साल 1960 के दशक में शुरू हुआ. इसके पहले ज्यादातर दवाइयां सफेद रंग में ही आती थीं. रिपोर्ट के अनुसार आज कैप्सूल्स बनाने के लिए 75000 से ज्यादा कलर कॉन्बिनेशन का इस्तेमाल होता है, वहीं टेबलेट की कोटिंग के लिए भी कई तरह के अलग-अलग रंग इस्तेमाल किए जाते हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर दवाइयों को रंगबिरंगा बनाया ही क्यों गया. जानकारों का मानना है कि कंपनियों ने ऐसा इसलिए किया, ताकि वह लोग जो दवाइयों के नाम पढ़कर उनमें अंतर नही कर पाते, वह दवाइयों के रंग से उनमें अंतर आसानी से कर लें. अगर आपके घर में कोई बुजुर्ग हैं और कई तरह की दवाइयां खाते हैं तो आपको पता होगा कि वो दवाइयों में अंतर उनके नाम से नहीं, बल्कि उनके रंग से करते हैं. इसके साथ ही रंग बच्चों को आकर्षित करते हैं, इसलिए कई बार छोटे बच्चे रंग बिरंगी दवाइयां देखकर उन्हें खा लेते हैं.
टेबलेट और कैप्सूल बनना कब शुरू हुआ
जब इंसान आधुनिक बनने की कतार में खड़ा था तो उसने बहुत सी चीजों के साथ तरह-तरह की जड़ी बूटियों और दवाइयों की भी खोज की. लेकिन यह दवाइयां टेबलेट और कैप्सूल के रूप में नहीं थीं. दवाइयों का इस्तेमाल गोलियों के रूप में सबसे पहले मिस्र की सभ्यता के दौर में शुरू हुआ. उस दौर में दवाइयों को चिकनी मिट्टी या फिर ब्रेड में मिलाकर बनाया जाता है. हालांकि, बीसवीं सदी तक दवाइयों को आधुनिक तौर पर सफेद रंग की गोलियों में तैयार किया जाने लगा. धीरे-धीरे जब इंसानों ने हाई टेक्नोलॉजी विकसित की तो दवाइयों के निर्माण में भी बदलाव आए और 1975 के आसपास सॉफ्टजेल कैप्सूल तैयार होने लगे. आज हमारे पास एक से बढ़कर एक दवाइयां अलग-अलग तरह के चमकीले रंगों में मौजूद हैं.
दवाइयों के रंग का बीमारी से कोई संबंध है
अमेरिका में हुई एक रिसर्च के अनुसार पता चला कि दवाइयों के रंग से बीमारियों का भी थोड़ा बहुत संबंध है. दरअसल, वहां अच्छी नींद के लिए ज्यादातर मरीजों को हल्के नीले रंग की दवाइयां दी जाती हैं, वहीं अगर किसी मरीज को अपनी बीमारी से बहुत जल्द आराम चाहिए तो उसे लाल रंग की दवाइयां दी जाती हैं. स्वाद और गंध के आधार पर भी दवाइयों का रंग तय किया जाता है.
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