दुनियाभर की स्पेशल फोर्सेज, जैसे- SWAT, कमांडो यूनिट्स, ब्लैक कैट कमांडो और दूसरे ऑपरेशंस दल के जवान अक्सर आपको काली वर्दी में मिलेंगे. भारत में भी जितने स्पेशल फोर्स के कमांडो हैं उनकी वर्दी भी काली होती है. चलिए आज इस खबर में जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है. इसके पीछे का वैज्ञानिक और रणनीतिक उद्देश्य क्या है.
पहले रणनीति के हिसाब से समझिए
दरअसल, स्पेशल फोर्सेज के ऑपरेशन ज्यादातर रात में या कम रोशनी वाली जगहों पर होते हैं. ऐसे में काली वर्दी रात के अंधेरे में बेहतर तरीके से घुलमिल जाती है. इसकी वजह से कमांडो दुश्मन की नजरों से बचे रहते हैं. आसान भाषा में कहें तो काली वर्दी का असली मक्सद यह सुनिश्चित करना होता है कि सैनिकों की उपस्थिति दुश्मन को कम से कम दिखाई दे, ताकि कमांडो बिना पता चले अपने मिशन को अंजाम दे सकें. इसके अलावा, काली वर्दी उन टेक्निकल उपकरणों के साथ घुली मिली रहती है जो कमांडो की वर्दी पर लगे होते हैं. जैसे- नाइट विज़न गॉगल्स, हेल्मेट और टैक्टिकल गियर.
साइकोलॉजिकल कारण भी है
काली वर्दी के पीछे साइकोलॉजिकल कारण भी है. दरअसल, काला रंग आमतौर पर शक्ति, भय और रहस्य का प्रतीक माना जाता है. ऐसे में जब स्पेशल फोर्सेज काली वर्दी पहनकर किसी ऑपरेशन में उतरती हैं, तो यह दुश्मन पर एक बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है. कई बार सिर्फ ब्लैक कमांडो को देखकर ही दुश्मन की हिम्मत टूट जाती है. इसके अलावा दुनियाभर में काली वर्दी एक तरह का पहचान चिन्ह भी है, जो यह दिखाती है कि पहनने वाला व्यक्ति किसी आम सैनिक या जवान से कहीं ज्यादा ट्रेन कमांडो है.
काली वर्दी की शुरुआत कहां से हुई
काले रंग का प्रयोग स्पेशल फोर्सेज में आज का नहीं है. इसकी जड़ें सेकंड वर्ल्ड वॉर के समय तक जाती हैं. दरअसल, माना जाता है कि सबसे पहले काली वर्दी का इस्तेमाल नाजी जर्मनी की Schutzstaffel (SS) फोर्स के लिए किया गया था. हालांकि, बाद में इस वर्दी का उपयोग विवादास्पद माना गया, लेकिन इसके प्रभाव की वजह से बाद में अन्य देशों की सेनाओं ने भी इसे अपनाया. खासतौर से 1970 और 1980 के दशक में अलग-अलग देशों ने अपने स्पेशल ऑपरेशंस यूनिट्स के लिए काले रंग को अपनाया.
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